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________________ सूक्तिमुक्तावली उन्नत दशा को प्राप्त होता है, अनेको महान् ऋद्धियां स्वयमेव प्रगट हो जाती हैं, कर्मों की गुणणि निर्जरा होती है तथा जिसके प्रभाव से स्वर्ग और मोक्ष अपने आधीन हो जाते हैं ऐसा तप फिर प्रशंसा योग्य क्यों न हो। किन्तु अवश्य ही प्रशंसा योग्य है । पुनश्च शार्दूलविक्रीडित छन्दः कान्तारं न यथेतरो ज्वलयितुं दक्षो दवाग्नि विना । दावाग्नि न यथापरः शमयितुं शक्तो बिनाम्भोधरं ॥ निजातः पवन विना निरपि मान्यो चासो धरं । कमौं, तपसा विना किमपरं इतुं समर्थस्तथा ।।८३) व्याख्या- यथा कांतारं वनज्वालयितु वनाग्नि विना इतरो अन्यो दलो न । पुनर्यथा दावाग्नि शमयितुं विध्यापयितु अम्भोभर मेधं विनाऽपर शक्तो न समर्थो न । पुनर्यथाऽभोधरं मेघ निरसितु दुरीकर्तुं पवन विनान्यो न निष्णातो न निपुणः तथैव कौघ कर्मसमूहं हतु छेस तपसा विनाऽन्यत्किं समर्थं अपितु न किमपि किंतु तप पय कर्माणि इंतु समर्थ ।। ८३ || अर्थ-जैसे धन को जलाने के लिये दावानल अग्नि के बिना अन्य दूसरी समर्थ नहीं है, दावानल को शांत करने के लिये विना मेषों के अन्य कोई समर्थ नहीं है, जैसे मेघों को छिन्न भिन्न करने के लिए पषन बिना दूसरा शक्तिमान नहीं है उसी प्रकार कर्मों को नष्ट करने के लिये तप के बिना क्या कोई दूसरा समर्थ है ' भीत् कोई नहीं है।)
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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