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________________ सूक्तिमुक्तावली पुनः परेषां ऋद्धिषु संपत्तिषु संतोषं अनभिलाषं अमरसरं वहते धो । पुनः पराबाधासु परपीडासु शुचं शोकं धत्ते । पुनः स्वश्लायो आत्मप्रशंसां न करोति । पुनः नयं न्यायं नोझति न त्यजति । पुनरोचिस्यं योग्यतां नोल्लंघयति नातिकामति । पुनरांप्रयं विरूपं अहितं सक्तोपि भरिएतोपि अक्षमा क्रोधं न रचयति न करोति । सता एतचरित्र वर्तते ॥ ६४॥ ____ अर्थ-सत्पुरुषों का चरित्र ऐसा होता है। -कि वे दूसरों के दोपों को प्रगट नहीं करते, दूसरों के थोड़े भी गुणों की रात दिन • प्रशंसा करते हैं, दूसरों के वैभव आदि को देख कर ईष्यालु न होकर सन्तोष धारण करते हैं, दूसरों के दुखों को देख कर दुःखी हो जाते हैं, अपनी प्रशंसा अपने आप नहीं करते किन्तु अपनी प्रशंसा सुन कर लज्जा प्रगट करते हुये लज्जा से अवनत हो जाते हैं, संकट आने पर भी न्याय नीति का त्याग नहीं करते, योग्य आचरण या स्वकर्तव्य की उपेक्षा नहीं करते और दूसरों द्वारा कटुक वचनों का प्रयोग किये जाने पर भी कोधित नहीं होते क्ष्मा (पृथ्वी ) की तरह क्षमा धारणा करते हैं। ऐसा यह सज्जनों का अपूर्व ही चरित्र है। भावार्थ -जो सब्जन पुरुष होते हैं ये दूसरों की कटु आलोचना नहीं करते, छिद्रान्वेषी नहीं होते। गुणपाही होने के कारण थे दूसरों के गुणों पर ही दृष्टिपात करते हैं, अवगुणों का त्याग करते हैं।
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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