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________________ ३२ सूक्तिमुक्तावली ( सम्यक्त्व रहित मिथ्या तप ) में अनुराग बढ़ाता है, ज्ञान के उत्साह को न करता है, विपत्तियों को उत्पन्न करता है अर्थात इन्द्रियविषयलोलुपी मनुष्य पर ही अनेक संकट के बादल छाये रहते हैं इस प्रकार समस्त दोषों का स्थान उस इन्द्रियसमूह को यश करो यह आचार्य का उपवेश भय्यात्माओं के लिये है जिससे जगत्-जंजाल में जीव अपना जीवन व्यर्थ ही नष्ट न करें । पुनराद्द शार्दूलविक्रीडित छन्दः घां मौनमगारमुज्झतु विधिप्रागल्भ्यमभ्यस्थता - मस्त्वन्तर्गण 'मागमश्रममुपादत्त तपस्तप्यत । श्रेयः पुञ्ज निकुंजभंजन महावातं न चेदिन्द्रियव्रातं जेतुमवैति भस्मनि हुतं जानीत सबै तदा ॥ ७१ ॥ व्याख्या - हे साधो ! भवान् मौनं पत्तां कुरुतां । पुनः आगारं गृहं उज्भतु श्यजतु पुनर्विधिप्रागल्भ्य सर्व्वाचारचातुर्यं अभ्यस्यां कुर्वन्तु । अन्तर्गणं गच्छ बासमध्ये अथवा अंतर्वनं वनमध्ये अस्तु भवतु । पुनरागमश्रमं सिद्धान्तपठनं उपादतां भंगीकुरुतां । पुनस्तपस्तप्यतां करोतु । परं चेद्यदि इंद्रियत्रात इन्द्रियसमूहं तु वशीकर्तुं नावैति न जानाति तदा स पूर्वानुष्ठानं अस्मनि रक्षायां हुतं वृथा जानीत । कथंभूतं इन्द्रियातं इन्द्रियसमूहं श्रयसां कल्याणानां पुंज एव निकुंजं तथ्य भंजने महावात वातूलसमानं ॥ ७१ ॥ १. वनमित्य पाठः । A
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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