SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूक्तिमुक्तावली वानं देयं । पुनः गुणेषु अनुरागः गुगाप्रहणणं रतिः कार्या । पुनः भागमस्थ सिद्धान्तस्य श्रुतिः अबकाये । पाम फत्वा मनुध्यजन्मसफलं, स्यात् ॥ १३ ॥ अर्थ-वीतराग जिनेन्द्र देव की प्रतिदिन पूजा करना, दिगम्बर साधुओं की सेवा सुश्रूषा करना, समस्त प्राणियों पर दया का भात्र रखना ( अर्थात "आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्" । अपने से विरुद्र व्यवहार दूसरों के साथ मत करो) जैसे प्रत्येक पुरुष को अपने प्राण प्रिय हैं जैसे ही दूसरे के प्राण समझो। ऐसा ज्ञात कर सम जीवों पर दया की परिणति रखना चाहिये ), पात्र सुपात्रों को श्रद्धा पूर्वक दान देना, गुणों में प्रीति करना (गुणचान् धर्मात्मा पुरुषों के अवलोकन मात्र से ही हृदय में वर्ष की लहरी प्लावित हो जाय या बह छठे ऐसा हर्ष प्राट करना ), जैन शाखों का सुनना अथवा शास्त्रों का पठन पाठन मनन आदि भभ्यास करना, ये मनुष्य-जन्म रूपी वृक्ष के फल हैं। इन घटकों के भाचरण करने से ही मनुष्य जन्म की शोभा-शोभाजनक है । मनुष्य जन्म धारण करके यदि उपरोक्त षटकर्मों का पालन जीवन में नहीं किया तो मनुष्य पर्याय पाना इस प्रकार निष्फल है जैसे कि ऊपर भूमि में बीज वपन करना ( बोना ) व्यर्थ है अथवा पाषाण पर कमलों का वन उगाने के समान विफल है । इसलिये प्रतिदिन प्रत्येक गृहस्य का कर्तव्य है कि परस्पर विरोध रहित इन षट्कों के भाचरण से अपने जीवन-विटप को हरा भरा बनाये रखें।
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy