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स्तिमुक्तावली
अर्थ--विरत पुरुष संसार के विषय भोगों को काले सर्प के फण के समान भर्थकर जानकर, राज्य को धूलि के समान जानकर, भाई आदि कुटुम्बी जनों को बन्ध के कारण जानकर, इन्द्रिय विषयों को विष मिभिस भन्म के समान जानकर, या पान्यादि विभूतिको भस्म की बहिन समान नानकर, रोजनित सुख को दृमातुल्य जानकर उन पदार्थों में अर्थात् भोग, राज्य, बन्धु, विभूति, स्त्री में शासक्ति को बोड़कर अत्यन्त विशुद्ध होता हुआ मुक्ति को प्राप्त करता है।
भावार्थ-ये इन्द्रिय भोगादि महान दुःखदाई हैं इनको खाग कर, चिरसि धारण कर, मुक्ति पद की प्राप्ति के लिये सतत प्रयत्नशील रहना ही मानव मात्र का कर्तव्य है। अथ सामान्योपदेशमाह--
उपेन्द्रवज्रा छन्दः जिनेन्द्रपूजा गुरुपयु पास्तिः ।
सत्यानुकम्पा शुभपात्रदान । गुणानुरामः श्रुतिरागमस्य ।
नृजन्मवृक्षस्य फलान्यमूनि ॥१३॥ ध्याख्या-नृजन्मवृक्षस्य मनुष्यजन्मचरोः अमूनि फलानि एतैः कृत्वा मनुजमन्मसफलं भवति । अमूनि कानि प्रथमं सावजिनंद्रपूजा श्रीवीतरागदेवस्य पूजा कार्य । पुनः गुरूणां पर्युपारित: सेवा कार्यः । पुनः सस्थानां जीवानां अनुकंपा या कार्या । पनःशुभपाने