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________________ पुनराह - किनुकारली वसन्ततिलकाद्वन्दः सुग्धप्रतारणपरायणमुज्जहीते । यत्पाटवं कपटलंपट चितवृत्तेः || जीर्यत्युपप्लवमवश्यमिहाप्यकृत्वा । नापथ्य भोजनमिवामयमायती तव ||५६ || तत् i व्याख्या - कपटे मायायां लंपटा वांछायुक्ता चित्तवृत्तिमनोव्यापारी यस्य सः तस्य पुरुषस्य यत्पाटवं चातुर्य जिते उल्लसति 4 तत्पाटयं अवश्यं निश्चयेन आयतो आगामिकाले उपप्लवं उपद्रगं अकृत्वा अविधाय न जीर्यति न परिणामं याति । किंतु तस्य विपाको भवत्येव किमिव अपथ्यभोजनं आमयमिव यथा अपथ्यं भोजनं जेमनं आमचं रोगं अकृत्वा आयतौ न जीर्यति न याति । कथंभूतं पाटवं मुग्धानां मूर्खाणां प्रतारणे गंचने परायं तत्परं ॥ ५६ ॥ अत्र मल्लिनाथजीव महाबळ दृष्टांतः भाषाभूत दृष्टान्तश्च । इति मायाप्रक्रमः अर्थ- सदा कपट करने में तत्पर चित्रा रखने वाले पुरुष की भोले पुरुषों को ठगने में जो चतुरता उल्लासमान होती है वढ् कपट चतुरता अवश्य हो फल देने के काल में जैसे अपथ्य भोजन रोग उत्पन्न किये बिना नहीं रहता उसी तरह कपट प्रवृत्ति भी लोक में बिना कुछ उपद्रव कष्ट दिए बिना नहीं रहती है। तात्पर्य यह है कि जैसे - अपथ्य भोजन करने से रोग अवश्य ही उत्पन्न होता है उसी प्रकार कपटी पुरुष दूसरों को ठग कर भले ही कुछ काल तक
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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