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________________ सूक्तिमुक्तावली शमकमलहिमानीं दुर्यशोराजधानी । म्यारासहायां दूरसो मुश्च वायाम् । व्याख्या--मो भव्यजन ! मायां कपट दूरतो मुञ्च त्यज । कथंभूतां मायां कुशलस्य क्षेमस्य जनने उत्पादने बंध्या बंध्यास्त्रीरूपां पुनः सत्यमेव सूर्यस्तस्यास्तमनाय संध्या तां । पुनः कथंभूतां कुगतिरेव युवतिस्तस्या वरणमाला तां। पुनमोह एवं मातंगस्तस्यशाला बंधनस्थानम् ता । पुनः किंभूता शम एव उपशम एव कमलानि तेषां हिमानो हिमसंहतिः तां । पुनः किंभूतां दुर्यशः अपकीर्तिःतस्य राजधानी निवासनगरी तां । पुनः किंभूतां व्यसनानां कष्टानां शतानि सहायाः यस्याः सा तो ईही माथां दूरतो मुख्य त्यज ॥ ५३ ॥ मर्थ -इस पद्य में मायाचारी के त्याग का उपदेश है वह माया कैसी है- कल्याण के उत्पन्न करने में बन्ध्या स्त्री के समान है (मायावी व्यक्ति के कभी भी कल्याण की भावना प्रत्पन्न नहीं हो सकती ), सत्य वचन रूपी सूर्य के अस्त होने के लिये सन्ध्या के समान है, मोह रूपी हाथो के लिये शाला के समान है, समता भाव रूपी कमलों को नाश करने के लिये तुपार [ पाला ] समान है, अपकीर्तिकी राजधानी है, सैंकड़ों व्यसनों को अपन्न करने में सहायक है ऐसी माया कषाय को दूर ही से त्याग देना चाहिये ॥ ५३ ।।
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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