SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूक्तिमुक्तावली दोषीजनों के भी गुण वर्णन करते हैं, कृतघ्नी मनुष्य की सेवा करने में भी विरक्ति ( ग्लानि ) नहीं करते। यही बड़े दुःख का *विषय है। भावार्थ ---युद्धिमान् पुरुष को धन की प्राप्ति के लिये तुच्छजनों की सेवा, घाटुकारिता करना शोभा जनक मह: परन्तु स्वाभिमान स्वप्रतिष्ठा का ध्यान रखते हुये पुण्योदय से प्राप्त वित्त बैभव में सन्तोष रखते हुये धार्मिक जीवन व्यतीत करना ही उत्तम है। इसी भावना के बल से ही इह लोक, परलोक का सुधार समी चीनतया सम्पादन हो सकता है। तृष्णावान् जीव को कभी भी * जीवन में सुख शान्ति का अनुभव नहीं हो सकता। मानव जीवन रूपी चिन्तामणि आत्म कल्याण के लिये पाया है न कि पर पदार्थों में परिणति को यिगाड़ कर भात्मपतन के लिये। उपमानेन श्रीस्वरूपमाह---- शार्दूलविक्रीडितछन्दः लक्ष्मी सति नीचमर्णवपयः सङ्गादिवाम्भोजिनी । संसर्गादिव कंटकाकुलपदा न क्वापि ध पदं ।। चैतन्यं विषसन्निधेरिव नृणामुज्जासयत्यजसा । धर्मस्थाननियोजनेन गुणिभियं तदस्याः फलं ॥७६॥ व्याख्या- लक्ष्मी नीचं सर्पति नीचजनं प्रति याति । कस्मात् सत्प्रेक्षते अर्णवपयः संगात समुद्रबलसंगमान नीचगामिन्यभूत् । पुनलक्ष्मीः क्यापि पदं स्थान न धत्ते न स्थापयति । कीदृशी भम्भोजिनी संसर्गात कमलिनी संयोगादिच कण्टकाकुलपदा कंटक च्याप्तचर
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy