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________________ ६६ . सूक्तिमुक्तावली प्राम का नाम भी नहीं है अर्थात अहंकार के कारण मनुष्य के सब गुण नष्ट हो जाते हैं. और जो मात हिंसा बुद्धिरूपी धूम से चारों। तरफ फैल कर क्रोधरूपी अग्नि को धारण करता है । ( मान के कारण जीवों की हिंसक बुद्धि तथा क्रोधाग्नि जाज्वल्यमान हो जाती है ) ऐसे अस कठिनता से पार करने योग्य मानरूपी पर्वत को उचित कार्यों से, सदाचरण से श्याग देना चाहिये ।। ४६॥ भूयोमानदोषानाह - शिखरिणी छन्दः शमालानं भजन्विमलमतिनाही विघटपन् , किरन्दुक्पिांशूल्करमगणयन्नागमणिम् । भ्रमन्नुयाँ स्वरं विनयवनवीथीं विदलयन् । जनः किं नानथें जनयति मदांधो द्विप इव ||५०॥ व्याख्या-मदान्धो जन: किमनर्थ न जनयति मदेन आईकारेण अन्धो गतेक्षणो जनः के के भन न जनयति नोत्पादयति अपि तु सर्व भनी जनयति क इव द्विप इव मत्तगज इव यथा मांघो द्विपो अनर्थ उपद्रवं जनयति । किं कुर्वन् शमालानं भंजन् शम एव उपशम एव भालानं गजबन्धनस्तम्भं मंजन उन्मूलयन् । पुनः किं कुर्वन् विमलमतिना निर्मलबुद्धि एव नाडी बन्धनरज्जुतां विघटयन् त्रोटयम् । पुनः किं कुर्वन् दुर्वापाशूकर दुर्वागेव दुर्वचनमेव पांशु धूलिस्तस्याः नकर समूह किरन विचपन् । पुनः आगम एव सिद्धांत एष सणिः अंकुशस्तं अवगणयन् अविचारयन् । पुनर्विचयनयदीथीं
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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