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________________ सूक्तिमुक्तावली वारयितुमशक्यं कथयन्ति । पुनस्तेषां मुक्ति दुर्लभां कथयन्ति । जिनागमश्रवणं विना मुक्तिं मोक्षं न प्राप्नुवन्ति । अतः श्रीजिनागमश्रवणमेव कर्तव्यं भाव विनापि श्रतं हिताय भवति । यथा द्वषेपि बोधकत्रचः श्रवं विधाय, स्याद्रौहिणे इव जन्तुरुदारलाभः । क्वाथोप्यप्रियोपि सरुजां सुखदोरविर्वा संतापको पिजगदंभृतां हिताय प्रतिज्ञावा जिनवचनस्य श्रवशां कर्तव्यं कुर्वतां । व सतां यस्पुण्यमुपद्यते तत्पुण्यप्रसादादुत्तरोत्तर मांगलिक्यमाला विस्तरन्तु ॥ १८ ॥ अर्थ - दयामयी सर्वत्र प्रणीत सिद्धान्त जिन जीवों के कानों के अतिथि नहीं बने हैं अर्थात् जो वीतराग प्ररणीत शास्त्रों को नहीं सुनते हैं उन मनुष्यों का मनुष्य जन्म पाना विफल है, हृदय व्यर्थ है, कानों का पाना वृथा है, गुण दोष के भेद ज्ञानकी विचार शक्ति उनके असंभव है, नरक रूपी अन्धकूप | कुये ] का पतन उनके लिये दुर्वार है अर्थात् ऐसे पापी जीव नरक में अवश्य जाते हैं और मुक्ति पद की प्राप्ति तो ऐसे जीवों को अत्यन्त दुर्लभ है ऐसा विद्वान् ज्ञानी पुरुष कहते हैं । २८ शार्दूलविक्रीडित छन्दः पीयूषं चिषवज्जलं ज्वलनवचं जस्तमः स्तोमवत् मित्रं शात्रववत्स्रजं भुजगवच्चितामणि लोष्ठवत् । ज्योत्स्नां ग्रीष्मजधर्मवत्स मनुते कारुण्यपण्यापणं जैनेन्द्रं मतमन्यदर्शनसमं यो दुर्मति मन्यते ।। १९ ।। व्याख्या - यो दुर्मतिः मूर्खः पुमान् जैनेन्द्र मतं श्रीजिनशासनं अन्यदर्शनसमं मन्यदर्शनः बौद्धनैयायिकसांख्यवैशेषिक
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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