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सूक्तिमुक्तावली रचना चाहता है, समता और इन्द्रिय दमन किये बिना ही तप करना चाहता है, अल्प बुद्धि होकर शास्त्र पारगामी होना चाहता है, नेत्रों के बिना पदार्थों को देखना चाहता है, और चंचल चित होकर भी ध्यान करना चाहता है।
भावार्थ-जिस प्रकार दया विना धर्म नहीं, न्याय विना कीर्तिलाभ नहीं, परिश्रम किये बिना धनोपार्जन नहीं मिमामिला काव्यरचना नहीं, शमदम बिना तप नहीं, विशिष्ट क्षयोपशम बिना म त ज्ञान नहीं चक्षु बिना पदार्थावलोकन नहीं, स्थिर मन बिना ध्यान नहीं होता उसी प्रकार सत्संगति बिना मनुष्चका कल्याण भी नहीं हो सकता। पुनर्गुणिसङ्ग मर्णयति
, हरिणी छन्दः (हरति कुमति भित्र मोहं करोति विवेकितां । वितरति रति सूते नीति तनोति गुणावलि ।। प्रथयति यशो धचे धर्म व्यपोहति दुर्गतिं । जनयति नृणां किं नाभीष्टं गुणोचमसंगमः ॥६६॥
व्याख्या-नृणां पुसा गुणः उम्तमा गुणोत्तमारतेषो संगमो नृणां किं किं अभीष्टं वांछितं न जनयति न करोति अपितु सर्पमभीष्ट जनयति । गुणोचमसंगमः कुमति कुचुचि हरति दूरीकरोति । पुनर्मोह अज्ञानं भिन्ते विदारयति । पुनर्विवेकिता तस्वातस्वविज्ञप्त करोति । रति संतोषं वितरति ददाति । पुननीति न्यायं सूते