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________________ सूक्तिमुकावली जनयति । पुनर्गुणावलि गुणश्रेणी ननोति । पाठांतरे तु विनीतता तनोति । पुनर्यशः कीति प्रथयति विस्तारयप्ति । पुनर्धम धरति । पुन गति नरकतिर्यग्गनिरूपां व्यपोति स्फेटयति । एवं गुणोत्तमसंगमः सर्वमभीष्ट जनयति ।। ६६ ।। । अर्थ-गुणी जनों की संगति खोटी युद्धि को इटाती है जीवों की मोह परिणति को नष्ट करती है, हेयोपादेय का ज्ञान प्रगट करती है, प्रेमभाव ( बात्सल्यभावना ) को बढ़ाती है, नीति मागे का आश्रय बनाती है, विनयगुण की वृद्धि करती है, लोकमें यश फैलाती है, धम सेवन को भावना को उत्पन्न करती है, नरकगति तियंचति के दुःखों को हटाती है ( नाश करती है ) सरसंगति मनुष्यों को कौन कौन से इच्छित पदार्थ प्रदान नहीं करती अर्थात् संसार में सर्व उत्तम गुणों को प्राप्त कराती है।) पुनराह शार्दूलविक्रीडित छन्दः लन्धुं पुद्धिकलापमापदमपाकर्तुं विहाँ पथि । प्राप्त कीर्तिमसाधुता विधुपितु धर्म समासेवितुं ॥ रोर्बु पापवियामाकलयितुं स्वर्गापवर्गश्रियं । चेत्त्वं चित् समीहसे गुणवता संगं तदङ्गीकुरु ।।६७।। ___ व्याख्या-रे चित्त चेत यदि त्वं बुद्धिकलापं बुद्धिसमूह लन्धु प्राप्तुं समीहसे वांछसि सत्तदा गुणवतो गुणिनां संगं संसर्ग अंगीकुरु विधेहि । पुनर्यदि पथि न्यायमार्गे बिहतु विचरतुवाछसि ।
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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