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________________ सूक्तिमुक्तावली व्याख्या-यो धर्म दहति स कोप क्रोधः कथं केगोपायेनोचितः योग्यः स्यात् अपि तु न कथमप्युचितः । सः कः यः कोपो धर्म श्रेयो पहति भस्मीकरोति । कः किमिव दवो दावानलो ममिव यथा दावानलो दुर्मवृक्षं दहति । पुनर्यो नीतिन्यायं उन्मध्नाति उन्मूलयति कः कामिव दन्ती हस्ती लतामिव यथा हस्ती लतामुन्मूलयति । नृणां मनुष्याणां कीर्ति क्लिश्नाति पोहयति गमयति । कः कामिव विघुतुदो राहुरिंदुकलां चन्द्रलेखामिव । पुनयों रोष: स्वार्थ विघटयति । स्फेटथति कः कमिव वायरबुदमिव यथा वायुमेधं विघटयति पुनयः आपदं कष्टं उल्लासयति। विस्तारयति कः कामिव धर्म: प्रीष्मः तृष्णामिव । यथा तपस्तृष्णां तुषां वर्धयति । पुनः कथंभूतः कोपः कृतकृपालोपः कृत्तः विहितः कृपाया दयाया लोपो विनाशो येन सः ॥४८|| इति क्रोधप्रक्रमः अर्थ-जो क्रोध वृक्ष को दावानल अग्नि के समान मनुष्यों के धर्म को जला देता है, लता को हाथी के समान नीति को लखाद देता है, चन्द्रमा की कला को राहु के समान कीर्ति को मलिन फर देता है, मेघ को पवन के समान स्वार्थ को नष्ट कर देता है, प्यास को धूप के समान आपत्तियों को बढ़ाता है और जिस शोध के कारण दयाभाव का सर्वथा लोप हो जाता है । ऐला वह कोध करना किस प्रकार उचित है अर्थात् नहीं करना चाहिये । क्योंकि कोष महान धनर्थ करता है । इसका त्याग करना ही उचित है ॥ ४८ ॥
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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