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सूक्तिमुक्तावली पावः । अमृतं असत्यं मृपावादः । स्तेयं चौथ्य अवसादानं अदत्तपर , वस्तुग्रहणं । अब्रह्म मैथुनं स्त्रीसेवा । परिमहोधनधान्यादि दशविधः ।
एभ्यः परमं निवर्तनं कुरुष्व | पुनः क्रोधायरीणां जयं क्रोधमानमा. यालोभरूपशत्रणां जयं कुरुष्व । पुनः सौजन्यं सुजनभावं सर्पजीवेषु. मैत्रीभावं कुरुष्व । पुन: गुणिसन गुणिनां गुणवतां मनुष्याणां सङ्ग सङ्गति कुरुष्व । पुनः इन्द्रियदर्म पंचेन्द्रियाणां दमनं कुरुष्व । पुनः दानं सुपात्रादिपंचप्रकारं कुरुष्य । पुनस्तपोऽनशनमूनोदावि बाह्य अभ्यन्तरं च द्वादशविधं कुरुष्व । पुनर्भावनां शुभचित्तभावं कुरुष्व । पुनराग्यं संसाराद् भोगादिभ्यश्च विरक्तभावं कुरुष्व । एतानि मोक्षपददायकानि ज्ञात्वा सम्यकप्रकारेणाराधनीयानि | आराधयता सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते ना पुण्यप्रगदानगरमांगलिमामाहा विस्तरन्तु ॥ ८॥
अर्थ-हे भव्य जीव : संसार के दुःखों से छूट कर मोक्षपद प्राप्त करने के लिये यदि तेरे मन में इच्छा है तो आचार्यों का उपदेश धारण कर । वह यह है-४६ गुण सहित, १६ दोष रहित तीर्थकर देव की भक्ति कर, २४ प्रकार परिग्रह रहित निर्धन्य गुरुषों की भक्ति कर, दयामई जिनधर्म और चार प्रकार के संघ (मुनि, आर्यिका, भावक, प्राविका ) की भक्ति कर, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पांच पापों का त्याम कर, क्रोधादि शत्रुओं को जीत, तपा सब के साथ सजनता का व्यवहार, गुणी पुरुषों की संगति, पांच इन्द्रियों को वश में कर और चार प्रकार का दान, बारह प्रकार का तप एवं संसार भरीर मोगों से विरक्तसाधारण