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________________ सूक्तिमुक्तावली । । स्वभावात् । पुनर्यः इन्द्रियगणः कृत्यं च अकृत्यं च कृत्याकृत्ये तयोषियेक एव विचार पव जीवितं जीवितव्यं तस्य इसी हरणे कृष्ण सप्पयते कृष्णसर्प इवाचरति । पुन ः इन्द्रियगणः पुण्यमेव हुमा स्तेषां खण्डं वनं तथ्य स्वढने छेदने स्फूर्जन कुठारायते । स्फूर्जित् तीक्ष्ण कुठार इवाचरति । कथंभूतं इन्द्रियगणं लुप्तप्रतमुद्र लुप्ता छिन्ना व्रतानां मुद्रा मर्यादा येन सः तं ॥ ६६ ॥ Lo अर्थ- जो इन्द्रियों का समूह अर्थात् इन्द्रियां इस आत्मा को खोटे मार्ग में प्राप्त कराने के लिये कद लगाम घोड़े के समान है, तथा जो कार्य अकाय के ज्ञान रूपी जीवन को नाश करने के लिये काले सर्प के समान है और जो पुण्य रूपी पृश्व के धन को काटने के लिये तीक्ष्ण कुठार के समान है ऐसे चारित्र की मर्यादा को नष्ट करने वाले इन्द्रियों के समूहको जीत कर मोक्षगाभी हो । भावार्थ- इन्द्रिय विषयों के वशीभूत होकर प्राणी कुमार्गगामी, अविवेकी, पापी और चारित्र भ्रष्ट हो जाता है और तो क्या अपने प्राणों को भी गया देता है जैसा कि कहा हैः — कुरङ्गमङ्गपतङ्गभृङ्गमीनाहताः पंचभिरेव च । एकः प्रमादी स कथं न हन्यते यः सेव्यते पंचभिरेव सद्यः | १८ | अर्थ- स्पर्शन इन्द्रिय के वशीभूत हो हाथी, रसना के वशीभूत मछली, प्राण इन्द्रिय के वशीभूत मोरा, चतु विषय का विषयी पतन तथा कर्ण इन्द्रिय का वशीभूत हिरन अपने प्राणों को गमा बैठता है। एक एक इन्द्रिय के विषयभूत होकर जीव जब अपने
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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