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सूक्तिमुक्तावली धर्म च कुर्वतां सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादादुत्तरोत्तरमाणलिक्यमाला पिस्तरन्तु ॥ ४॥
अर्थ-जो अज्ञानी कठिनता से प्राप्त होने वाले इस मनुष्य पर्याय को पाकर भी सर्वज्ञ वीतराग प्रणीत धर्म को यत्न से ( सावधान होकर ) सेवन नहीं करता वह अज्ञानी कष्टों से प्राप्त किये हुए चितामणि रत्न को प्रमाद से समन में फेंकता है।
भावार्थ-मनुष्य भव की प्राप्ति विशेष पुण्योदय से होती हैं। प्रद्धापूर्वक वीतराग वेष, जिनागम एवं निर्गन्ध गुरुओं की भक्ति करना ही इस मनुष्य जन्म की सफलता प्राप्त करना है। जो ऐसा न करके सांसारिक विषय वासनाओं में लिप्त होकर मर्निश ( रातदिन ) व्यतीत करते हैं वे अज्ञानी हैं, वे मानों बड़े परिश्रम से प्राप्त चिन्तामरिण रनको पाकर समुद्र में फेंकते हैं। इसलिये धर्म साधन कर मनुष्य जन्म सफल करना योग्य है। आगे इसी कथन को दृष्टान्त द्वारा हद करते हैं
अथ मनुष्यभयस्य सर्वोत्कृष्टत्वमाह
मन्दाक्रान्ताछन्दः स्वर्णस्थाले क्षिपति स रजः पादशौचं विधत्ते, पीयूषेण प्रवरकरिणं वाहपत्येन्धभारम् ।। चिन्तारत्नं विकिरति कराद्वायसोडायनार्थम्, यो दुष्प्राप्यं गमयति मुधा मय॑जन्म प्रमसः ॥५)