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________________ सूक्तिमुक्तावली हित का विवेक नहीं रहता। अतः इसको धर्मकायों में लगाने से ही इसके प्राप्त करने की मफळता है। धन खर्च करने के सात क्षेत्र हैंजिनप्रतिमा, जिनमन्दिर, श्र तज्ञान, मुनि, आर्यिका, श्रावक, प्राविका इन सात धर्मस्थानों में लक्ष्मी का सदुपयोग करने वाले पुरुष ही सद्गृहस्व हैं उन्हींके द्वारा धर्म की अपूर्ण प्रभावना होती है, वात्सल्य भाव की वृद्धि होती है, अनेक जीवों का धर्म में धर्म का स्थितिकरण होता है तथा स्व पर कल्याण होता है। कामदेश द्वारमाह--- शार्दूलविक्रीडित छन्दः चारित्रं चिनुते तनोति विनयं ज्ञानं नयत्युन्नति । पुष्णाति प्रशमं तपः प्रबलयत्युल्लासयत्यागमं ।। पुण्यं कन्दलयत्य, दलयति स्वर्ग ददाति क्रमात् । निर्वाणश्रियमातनोति निहितं पात्रे पवित्र' धनं ७७|| व्याख्या - पवित्र न्यायोपार्जितं धनं वित्तं पात्रे सुपात्रे निहितं दस सत् चारित्र' संयम चिनुते वद्धयति । विनयं विनयगुणं तनोति प्रीणयति । पुनर्ज्ञानं श्रुतादि उन्नतिं नयति प्रापयति । पुनः प्रशमं चपशमं पुष्णाति पोषयति । पुनस्तपो मासक्षमणादि प्रबलयति पारणादियोगात्साइयति । पुनरागमं सिद्धान्तं पठनादि उल्लासयति प्रबलं करोति। पुनः सत्कर्मवनं कंदलयति कंदलयुक्त करोति । पुनः अघं पापं इलयति खंब्यति । पुनः स्वर्ग ददाति क्रमात अनुक्रमेण निर्वाणश्रियं मोक्षलक्ष्मी मातनोति बचे इत्यर्थः । सुपात्रे इत्तं धनं एतानि वस्तूनि करोति ।। ७७ ॥
SR No.090482
Book TitleSuktimuktavali
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorAjitsagarsuri
PublisherShanti Vir Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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