Book Title: Suktimuktavali
Author(s): Somprabhacharya, Ajitsagarsuri
Publisher: Shanti Vir Digambar Jain Sansthan

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Page 137
________________ १३० सूक्तिमुक्तावली के विषय रूपी विषवृक्षों पर निवास मत कर। क्योंकि इन विषय रूपी वृक्षों की छाया भी शीघ्र ही महामोह को उत्पन्न कर देती है। जिस महान मोहमें फँसकर प्राणी एक पैर भी आगे नहीं चल सकता । भावार्थ- इन्द्रियों के विषय विष वृक्षों के समान हैं। इनको सेवन करने वाला या इन विषयों में अन्धा हुआ [ अनुरक्त हुआ ] प्राणी कदापि मोक्ष पद प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिये मुमुक्षु [ मोक्ष प्राप्त करने के इच्छुक ] भव्य पुरुष को कदापि इन विषय वासनाओं का सेवन [संसर्ग ] नहीं करना चाहिये किन्तु इन विषयों को किम्पाक [ किन्दुरी ] फळ समान जान कर त्याग करने का हो लक्ष्य रखना चाहिये। और उस लक्ष्यको सिद्धि में अनेकों संकटों का सामना भी करना पड़े तो भी उसकी परवाह न करके सतत प्रयत्नशील रहना चाहिये । तथा आत्म निर्भर होकर एवं सहिष्णु बन कर उन संकटों - आपत्तियों को समता के साथ सहन करना चाहिये । जब तक इस मार्ग का अनुसरण नहीं किया जायगा तब तक कदापि कोई भी पुरुष अपने लक्ष्य की सिद्धि तक नहीं पहुँच सकेगा यह एक निश्चित सिद्धान्त है। इसी में प्रत्येक प्राणी का कल्याया निहित है । आधुनिक भौतिकवाद विचार के लोग भले ही इस मुमुक्षु को बुरा बतायें, उसकी निन्दा करें, उसे कायर कहें या मार्ग शिथिलता के अनेकों प्रलोभन प्रदर्शन करें परन्तु उस दूषित वातावरण की ओर दृष्टिपात न करके अपने लक्ष्य की सिद्धि में भागे बढ़ता ही चला बाधे ।

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