Book Title: Suktimuktavali
Author(s): Somprabhacharya, Ajitsagarsuri
Publisher: Shanti Vir Digambar Jain Sansthan

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Page 135
________________ १२८ सूक्तिमुक्तावली शिखरिणी छन्दः करे श्लाघ्यत्यागः शिरसि गुरुपादप्रणमनं । सुखे सत्या वाणी श्रुतमधिगतं च श्रवणयोः ।। हृदि स्वच्छा वृवि विजय भुजयोः पौरुषमहो । विनाप्यैश्वर्येण प्रकृतिमहतां मंडनमिदं ॥ ९७॥ व्याख्या - अहो आश्चर्ये प्रकृतिमहतां स्वभावेनोत्तमानां पसां ऐश्वर्येण साम्राज्येन विनापि इवं मंडनं भक्ति इदमिति किं । करे इस्ते स्यागो दानं श्लाघ्यो मंडनं न कंकणादिः । पुनः शिरसि गुरूणां पादयोश्चरणयोः प्रणमनं नमस्कार करणमेव मंडनं न मुकुटतिलकादीनि । मुझे सत्या वारयेत्र मंहनं न साम्बूलादि । श्रवणयोः कर्णयोः अधिगतं पठितं श्रतं शास्त्रमेव मंडनं न कुंडलादि । हृदि हृदये स्वच्छा निर्मला वृत्ति व्र्व्यापार एवं मंडनं न हारमालादिः । भुजयोः बाह्रोविजयि जयनशीलं पौरुषं पराक्रमो धर्मविषये यदूबलं तदेव मंडनं न केयूरादिः । महतां पुंसां धनं विनापीदमेव मंडनं ॥१७॥ अर्थ- हाथों में प्रशंसनीय दान, मस्तक में निर्मन्थ गुरुओं के चरणकमल को नमस्कार, मुख में सत्य वचन, कर्णों में प्राप्स हुआ शास्त्र ज्ञान, हृदय में निर्मल विचार और भुजाओं में सबको विजय करने वाला पुरुषार्थ, अहो बड़ा आश्चर्य है कि सज्जन पुरुषों का यह भूषण ऐश्वर्यं बिना ही होता है । भावार्थ- सध्जन पुरुष स्वभाव से ही अपने हाथों से दान देते हैं । दिगम्बर निन्य गुरुओं के चरणारविन्द को विनय पूर्वक मस्तक से नमस्कार करते हैं, मुख से सदा सत्य भाषण करते हैं,

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