Book Title: Suktimuktavali
Author(s): Somprabhacharya, Ajitsagarsuri
Publisher: Shanti Vir Digambar Jain Sansthan

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Page 34
________________ सूक्तिमुक्तावली अर्थ-सा गोरा के मद ( पसार शर्मित वचन लपी नेत्रों से रहित पुरुष देव अदेव को नहीं देखते हैं, सुगुरु कुगुरु को नहीं देखते, धर्म अधर्म को नहीं देखते, गुणवान निर्गुण को नहीं देखो, करने योग्य और न करने योग्य कार्य को नहीं देखते, और हित अहित को भी अच्छी तरह नहीं देखते अर्थात जो सर्वज्ञ वीतराग प्रणीत जैन शास्त्रों को रुचि ( श्रद्धा ) पूर्वक सुनते और पढ़ते हैं उन्हें भले बुरे का ज्ञान अच्छी तरह होता है अतः गृहकार्य छोड़कर भी जैन शास्त्रों का अभ्यास करना चाहिये । शार्दूलविक्रीद्वितछन्दः मानुष्यं विफलं वदंति हृदयं व्यर्थ पृथा श्रोत्रयो निर्माणं गुणदोषभेदकलनां तेषामसंभाविनीम् । दुर्वारं नरकान्धकूपपतनं मुक्तिं बुधा दुर्लभां सार्वज्ञः समयो दयारसमयो येषां न कर्णातिथिः ।।१८॥ व्याख्या-सार्वज्ञः सर्वज्ञप्रणीत: श्रीवीतरागदेवेन भाषितः समयः आगमो येषां पुरुषाणां कर्णातिथिः कर्णगोचरो न नातो ये न श्वत: बुधाः पंडितास्तेषां मनुष्याणां मानुष्यं मनुष्यजन्म विफलं निष्फलं वदन्ति । लब्धमप्यलब्धं कथयन्ति । तेषां हृदयं चित्त व्यर्थ निरर्थकं शून्य पदन्ति । पुनः तेषांभोत्रयोः कर्णयोः निर्माणं करणं वृथा निष्फलं वदन्ति । पुनस्तेषां गुणानां दोषाणां च यो भेदोऽन्तरं तस्य कलना विचारणा असंभाविनी अर्थात् दुर्लभो वदन्ति । पुनः नरकमेव अंधकूपस्तृणवल्लीपिसामाच्छादितः कृपस्तत्र पतनं दुर्वार

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