Book Title: Suktimuktavali
Author(s): Somprabhacharya, Ajitsagarsuri
Publisher: Shanti Vir Digambar Jain Sansthan

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Page 126
________________ सूक्तिमुक्तावली १६ विरति रूपी स्त्री के कीड़ा-गृह समान है, काम रूप उबर को नाश करने को औषधि समान है, और जो मोक्षमार्ग में ले जाने के लिये रथ समान है ऐसे वैराग्य का वृदय में चिन्तवन करके हे भव्य ! तुम निर्भय बनो। ऐसा जान कर निरन्तर घेराग्य का चिन्तयन करना चाहिये। पुनराह - वसन्ततिलकाछन्दः ६ चण्डानिलः स्फुरितमयचयं याचि । वृक्षवन तिमिरमण्डलमर्कबिम्बम् ।। षजं महीधनिवहं नयते यथान्तं । वैराग्यमेकमपि कम तथा समग्रम् ।।९०॥ व्याख्या-यथा चंदानिलः प्रचंडवायुः स्फूर्जितं अन्दर्य मेघघटांतं अंतं विनाशं नयते प्रापयति । पुन र्यथा दावाचि र्दावाग्निक्षजंद्रुमसमूह अंतं प्रापयति । पुनर्यथा अर्कविम्ब सूर्यश्चिम्ब सिमिरमंडल अंधकारसमूह अंतं मयते । पुनर्यथा वम इन्द्रायुधं महीध्रनिवह पर्वत. , समूह अंतं विनाशं नयति प्रापयति । तथैव एकमपि वैराग्यमेव समर्प कर्म अंतं नयति ॥ ३॥ (अर्थ-जैसे प्रचण्ड पवन आच्छादिस भेघ समूह को नष्ट कर देता है, दावानल वृक्षों के समूह को नष्ट कर देती है. सूर्य का बिम्ब अन्धकार राशि को नाश कर देता है, वन पर्याप्त समूह को नाश कर देता है, वैसे ही एक वैराग्य समस्त कर्मों का नाश कर देता है। }

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