Book Title: Suktimuktavali
Author(s): Somprabhacharya, Ajitsagarsuri
Publisher: Shanti Vir Digambar Jain Sansthan

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Page 125
________________ सूक्तिमुक्तावली है पर उसका सर्वथा क्षय ( उदीरणा ) असम्भव है अतः सदैव सद्भावना जीवन की सफलता का सूचक है। श्रथ वैराग्यमाह तिही वनः यदशुभरजः पाथो हप्तेन्द्रियद्विरदांकुशं । कुशलकुसुमोद्यानं माद्यन्मनाकपिशृङ्खला ।। बिरतिरमणीलीलावेश्म स्मरज्वरभेषजम् । शिवपथरथस्तवैराग्यं विमृश्य भवाभयः ।।८९|| व्याख्या-भो मुने । तद्वैराग्यं विमृश्य चिन्तयित्वाऽभवः .. संसारहितो भय । तरिक यद्वैराग्यं अशुभं पापमेव रजोधूलिस्तत्र पाथो जलं तटुपशमहत्तस्यात् । पुनर्यत् वैराग्यं माद्यन् मदोन्मतो यो मन एव कपिर्धानरस्तस्यसला निगडो बन्धनं । पुन: कि विशिष्ट कुशलमेव कुसुमानि तेषां उद्यान पुष्पारामं । पुनमानि इन्द्रियाण्येष द्विरदा गजास्तेषां अंकुश यश्यफर । पुनर्यत् विरचिरमणी लीलाधेश्म विरतिरमणी देशविरतिरेवरमणी स्त्री तस्याः पष लीलावेश्मकोडागृह । पुनयंत् स्मरज्वरभेषजंस्मर एव ज्यरस्तस्यौषधं कामज्वरौषधं । पुनयंत शिवपथरथः मोक्षमार्गे रपसमाना र सद्वैराग्यं विमृश्य विचार्य ममयः संसारमयरहितो भव ।। ८ ।। अर्थ-जो बैराग्य पाप रूपी धूल के बहाने के लिये बल के समान है, मदोन्मत्त इन्द्रिय रूपी हाथी को वश में करने के लिये अंकुश समान है, जो कल्याण रूपी पुष्पों के बाग समान है, मदोमन मन रूपी बन्दर को वश करने के लिए सांकल समान है,

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