Book Title: Suktimuktavali
Author(s): Somprabhacharya, Ajitsagarsuri
Publisher: Shanti Vir Digambar Jain Sansthan

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Page 123
________________ सूक्तिमुक्तावली दावानल को शान्त करने के लिये मेघमाला है, चंचल इन्द्रिय रूपी हिरण को पकड़ने का जाल (पाश ] है, प्रबल कषाय रूपी पर्वत को भेदन करने के लिये करके समान और मुक्ति के मार्ग में शीघ्रतया गमन करने के लिये खच्चरी के समान है ऐसी भावना सदा भजने ( भाषने ) योग्य है दूसरे कार्यों से कुछ काम नहीं है । भावार्थ- अन्य सभी कार्यों को छोड़ कर भावनाभों का निरन्तर चिन्तवन करना चाहिए। इसी भावना के बल से अनादि काल से चली आई पर पवाथी को मनानरूप पर परिणति दूर हट कर, स्वपरिणति ( आत्मा की भावना ) जागृत होती है अर्थात् मिथ्यात्वपरिणति रूप अन्धकार नष्ट होता है। हृदय में सम्यक्त्व ज्योति का आविर्भाव [ प्रगट ) होता है। इसीसे प्राणिमात्र का कल्याण होता है। पुमराह शिखरिणीछन्दः धनं दवं वित्तं जिनवचनमभ्यस्तमखिलं । क्रियाकाण्डं चण्डं रचितमवनी सुप्तमसरुव ।। तपस्तीन तप्तं चरणमपि चीण चिरतरं । न चेच्चिचे भावस्तुषवपनवत्सर्वमफलम् ॥८८॥ व्याख्या-घनं प्रचुर विसं धनं पात्रेभ्यो दत्तं । पुनरखिलं समस्तं जिनवचनं जिनागमरूप अभ्यस्त पठितं । पुनश्चंडं भीमं कियाकोई लोचापि रचितं कृतं । पुनरवनी भूमी असाद्वारं वारं सुप्तं शयनं कृतं । पुनस्तीनदुःकरं तपस्तप्तं तपः कृतं । पुनश्चरण चारित्रं

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