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सूक्तिमुक्तावली
पुनराह
शार्दूलविक्रीडितछन्दः सर्व ज्ञीप्सति पुण्यमीप्सति दयां धित्सत्ययं मिल्सति | क्रोधं दित्सति दानशीलतपसां साफल्यमादित्सति ।। कल्याणोपचयं चिकीर्षति भवाम्भोधेस्तटं लिप्सते । मुक्तिस्त्री परिरिप्सते यदि जनस्तद्भावयेद्भावनाम् ।।८६
व्याख्या-यदि मनो लोकः सर्व वस्तु नीप्सति ज्ञातुं इच्छति । पुनर्यदि पुण्यं धर्म ईप्सति वांछति । पुनर्यदिजनो दयां कृपा धित्सति धतुं इति । पुनर्यदि अचं पापं मित्सति मातुं हंतु. मिच्छति । पुनर्यदि क्रोधं रोषं दित्सति खंहितु इच्छति । पुनर्यदि वानशीलतपसा साफल्यं सफल आदित्सति प्रहीतुमिच्छति । यदि पुनः कल्याणोपचयं कल्याणवृद्धि चिकीर्षति कर्तु वांछति । पुनर्यदि भराम्भोधेः संसारसमुद्रस्य सदं पारं लिप्सति लन्धुमिच्छति । पुनर्यदि मुक्तिस्त्री सिद्धिरमणी परिरिप्सते आलिगितुमिच्छति जनस्तदा भावनां शुभभावं भावयेत् कुर्यादित्यर्थः॥८६॥
अर्थ-यदि मनुष्य सर्वज्ञ होने की इच्छा करता है. पुण्य की वाञ्छा करता है, या धारण करना चाहता है पापों को नष्ट करना चाहता है, कोध को भेदन करना चाहता है, दान शील तप की सफलता चाहता है, निरन्तर कल्याण करने की चाह रखता है, संसार रूपी समुद्र के किनारे पर पाना चाहता है और मुक्ति स्त्री के घर की इच्छा रखता है तो निरन्तर बारह भावना भावे अर्थात चिन्सषन करे इन भावनाओं के चिन्तवन करने से शान्तिरस का