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सूधिगुरकावडी
एयेव भोगो यस्य स अथवा विपुलकुलबळेश्वर्याएयेष विस्तारश्य भोगो यस्य स । पुनः किं भूतः स्वर्गादीनां देवलोक मैधेयकानुत्तरत्रिमानानां प्राप्तय एव पुष्पाणि यस्य स । ईदृशस्तप एवं पादयो वृक्षः स शिवसुखमेव फलं दधाति ॥ ८४ ॥
अत्र वसुदेव हरिकेशवकथा ||
अर्थ - यह तप वृक्ष के समान है कैसा है तपरूप वृक्ष सन्तोष ही है चढ़ जड़ जिसकी, प्रशम संवेगादिरूप स्कन्ध बन्ध का फैलाव है जिसका, पांचों इन्द्रियों के निरोध रूप शाखायें हैं जिसकी, देदीप्यमान अभय पत्र [ पत्ते ] लग रहे हैं जिसके, शीळ सम्पत्ति रूपी कोंपलें है जिसकी श्रद्धा रूपी जल के सींचने से उत्तम कुल, विपुल ऐश्वर्य सुन्दरता नाना प्रकार के भोग युक्त स्वर्गादिरूप पुष्प हैं जिसके, ऐसा रूप रूपी वृक्ष मोक्ष पद रूपी फल को देता है ।
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भावार्थ - लोक पूज्य महान् उत्तम फल को देने वाले ऐसे तप रूपी वृक्ष की विषयादि रूपी अग्नि से रक्षा करना योग्य है अन्यथा यह सर्वथा नष्ट हो जायगा ।
भावोपदेशमाह
शार्दूलविक्रीडित छन्दः
नीरामे तरुणी कटाक्षितमिवत्यामव्यपेतप्रभोः । सेवाकष्टमिवोपरोपणमिवाम्भोजन्मनामश्मनि ॥ विषम्वर्षमिवोपरक्षितितले दानादिचतपः । स्वाध्यायाध्ययनादि निष्फलमनुष्ठानं विना भावनां ||२५||