Book Title: Suktimuktavali
Author(s): Somprabhacharya, Ajitsagarsuri
Publisher: Shanti Vir Digambar Jain Sansthan

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Page 122
________________ अनुभव होता है, वैराग्य सदा भावने योग्य है। पुनर्विशेषमाह- सूक्तिमुक्तावली ११५ भावों की वृद्धि होती है अतः भावनायें पृथ्वी छन्दः विवेकवनसारिणीं प्रथमशमसंजीविनीं । भवार्णव महातरी मदनदावमेचावलीं ॥ चलाक्षमृगवागुरां गुरुकषायशैलाशनिं । विमुक्तिपथवेसरी भजत भावना किं परैः || ८७ ॥ व्याख्या - भो भव्याः ! भावनां शुभपरिणामरूपां भजत सेवध्वं परैरन्यैः कष्टानुष्ठानैः शुभभावरहितैः किं न किंचिदित्यर्थः । कथंभूतां भावनां विवेकः कृत्याकृत्यविचार एव वनं तत्र सारणि: कुल्या तां । पुनः प्रशमशर्मणः उपशमसुखस्य संजीवनी जीवनकर्ती तां । पुनः किंभूतां भव एव संसार एव भवः समुद्रस्तत्र महातरीं मद्दानावं । पुनः किं भूतां मदन एव दावो दावाग्निस्तत्र मेघस्यावली I । पुनः किं भूतां चलानि चंचळानि यानि अक्षाणि इंद्रियायेक मृगा हरिणास्तेषु वागुरां मृगजालं पाशबन्धनं । पुनः किं भूतां गुरुविष्टश्चतुः कषायरूप एवं शैलः पर्वतः तत्र अशनि बैत्र । पुनः किं भूतां विमुक्तः सिद्धेः पंयास्तत्र बेसरी अश्वतरीं तद्भारवाहिकां सरमाच्छुभभावनामेव कुर्वन्तु ॥ ८७ ॥ अर्थ --- जो विषेक रूपी वन को सिंचन करने के लिये कृत्रिम नदी समान है नहर समान है, शान्तिभाव रूप सुख की संजीवनी औषधि है, संसार रूपी समुद्र के तिरने के लिए महान् नौका है, काम रूपी

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