Book Title: Suktimuktavali
Author(s): Somprabhacharya, Ajitsagarsuri
Publisher: Shanti Vir Digambar Jain Sansthan
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सूक्तिमुक्तावली जाय, मर्यादा रहित क्लेश देने वाली तपस्या कार्यकारी हो जाय, गुणवानों की उपासना कार्यकारी हो जाय, वनमें योगासन करना सफल . हो जाय, मुक्ति पद देने वाली इन्द्रिय के दमन की विद्या सफल हो जाय ।
__ भावार्थ-वीतराग भाष बिना कोई भी कार्य कार्यकारी नहीं है इसलिये वीतराग माव का अवलम्बन ही कार्यकारी है। विरक्तगुणमाह
साटूलविक्रीलितलारः भोगान्कृष्णभुजंगभोगविषमान् राज्यं रजा सन्निभं । बंधबंधनिबंधनानि विषयग्राम विषान्नोपमं ॥ भूतिभूतिसहोदरा तुणतुलं स्त्रणं विदित्वा स्यजन् । तेष्यासक्तिमनाविलो विलभते मुक्ति विरक्तः पुमान् ।।९२॥
___ व्याख्या-विरक्तो वैराग्ययुक्तः पुमान मुक्तिं विलभते सिद्धि प्राप्नोति। किं कृत्वा भोगाव शब्दादीम् कृष्णभुजङ्गभोगविपमान् कृष्णस्वासौ भुजंगः सर्पस्तस्य मोगः शरीरं तबद् विषमान् भीमान विदित्या हात्वा वेषु अत्यासक्ति अत्यभिलाषंत्यजन् । पनः राजा आधिपत्यं रजः सन्निभं धूलिसदृशं मस्खा त्यअन् ।पनवेधून स्वजनान् कर्मबन्धस्य निर्वधनानि कारणानि मत्वा । पनपिगमार्म विषयसमूह विषान्नोपम विषमिश्रितान्नसमं मत्वा । पुनभूति ऋद्धि भूतिसहोदरां भस्ममगि: रक्षासहशी मस्खा । पुनको स्त्रीणां समूह तमिवरणसरशं विदित्वा तेषु आसक्ति अत्यभिलाषं त्यछन् । कथभूतो विरक्तः पुमान बनाविलः रागवेषाधनाकुलः ॥ ३२ ॥
इति वैराग्यप्रक्रमः ।

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