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सूक्तिमुक्तावली
भावार्थ - वैराग्य परिणति का अद्भुत माहात्म्य है। वैराग्य परिणति से भव भवान्तरों के संचित कर्म एक क्षण में नाश हो जाते हैं। भर्तृहरिकृत नीतिशतक में कहा हैं
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भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद् भयम् । मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे धरायाः भयम् ॥ शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्तादुद्भयम् । स वस्तु मयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम् ॥ १ ॥
अर्थ संसार के भोगों में रोग का डर रहता है अर्थात् भोग भोगने के कारण रोग प्राप्त हो जाते हैं कुल में पतित होने का भय रहता है, अर्थात् दुराचार के कारण व्यक्ति कुलसे पतित हो जाता है अधिक धनी हो जाने पर राजा द्वारा धन छीने जाने का भय रहा करता है, मौन धारण में दीनता का भय रहता है, बल में शत्रु के आकमा का भय बना रहता है, रूपवान ( सुन्दर ) होने पर भी बुढापे का भय है क्योंकि वृद्धावस्था में रूप नष्ट हो जाता है अनेक शास्त्रों का पाठी हो जाने पर भी बाद विवाद का भय रहता है, गुणवान होने पर भी दुष्टों से भय बना रहता है, उत्तम बलिष्ठ शरीर प्राप्त हो जाने पर भी कालसे प्रसित होने का भय रहता है । इस प्रकार सांसारिक पदार्थों में सर्वत्र भय का अन्देशा है। एक बैराग्य ही ऐसा है जो मयरहित है। जिस समय संसार, देव, भोग के स्वरूप को चिन्तन कर मनुष्य के हृदय में वैराग्य की भावना जागृत हो जाती है, दुर्धर दिगम्बर दीक्षा धारण में दृढ़ विश्वास हो जाता है उस समय उस वैराग्य रूपी हड़ शृङ्खला को तोड़ने में कोई