Book Title: Suktimuktavali
Author(s): Somprabhacharya, Ajitsagarsuri
Publisher: Shanti Vir Digambar Jain Sansthan

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Page 128
________________ सूक्तिमुक्तावली १२१ भी साहसी सामना नहीं कर सकता अर्थात् अनेकों भय के कारणों का प्रदर्शन किये जाने पर भी यह वीर ौरागी पुरुष अपने हद पा अकाट्य विचारों से मुंह नहीं मोड़ता किन्तु वैराग्यावस्था धारण कर ही लेता है इसलिये कहा है नैराग्य ही अभय है। शिखरिणीछन्दः नमस्या देवानां चरणवरिवस्था शुभगुरो-। स्तपस्या निःसीमक्लमपदमुपास्या गुणवता ।। निषद्यारण्ये स्यात्करणदमविद्या च शिवदा । विरागः करायाक्षपणनिपुणोऽन्तः स्फुरति चेत् ॥९१।। ध्याख्या-चेद् यदि अंतः चित्ते विरागो भैराग्यम स्फुरति वर्तते तदा देवानां नमस्या नमस्करणं शिवदा मोक्षदायिनी स्यात् । पुनः शुभगुरोः चरणवरिवस्या स्यात् चरणयोः सेवा सदा शिवदा स्यात् । पुनः निःसीमलमपदम् भस्यंतश्नमपद ईदशी तपस्या तदेष शिवदा स्यात् । पुनःगुणवतांझानादिगुणयुक्तानां उपास्था सेवापि तदेव शिवदा स्यात् । पुनररण्ये वने निषद्या स्थितिस्तदेव शिवदास्यातू । पुनः करणदमविया इन्द्रियहमनविधिरपि तदैव शिवदास्यात् । यदि अंतमध्ये विरागो भवति । कथंभूतो विरागः करागःक्षपणनिपुणः करं घोरं यदागोऽपराधस्तस्यक्षपणे आयकरणे निपुणश्चतुरः ॥ १ ॥ अर्थ -यदि तीव्र पापों के क्ष्य करने की सामर्थ्य वाला वैराग्य भाष हृदय में स्फुरायमान { प्रगट ) हो जाय तो देवाधिदेव वीतराग का नमस्कार कार्यकारी हो जाय अथवा वीतराग देव की पूजा सफल हो जाय, गुरुओं के चरण कमलोंकी उपासना सफल हो

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