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सूक्तिमुक्तावली
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चिरतरं बहुकालं चीणं सेवितं पालितं परं चैवदि चिसे हृदि भाषो न शुभभावना नास्ति तदा धान्यस्य तुषवपनवत् सर्गे पूर्वोक्तं विफलं स्यात् अत्र मरुदेवी भरत प्रसन्न चन्द्रराजर्षीणां कथा ॥ ८८ ॥
इति भावना प्रक्रमः
अर्थ
जीवन में
दिया सहय शास्त्रों का अभ्यास किया, प्रचण्ड क्रिया काण्ड भी किया, सदा पृथ्वी पर ही कष्ट सहन करता हुआ शयन किया, बोर तपस्या की, चिरकाल तक चारित्र का भी पालन किया, किन्तु यदि भावना उत्तम नहीं है अर्थात् आत्मचिन्तवन पूर्वक ये कार्य नहीं किये तो तुष ( धान के छिलके } के बोने के समान सब क्रियाकाण्ड निष्फल है।
भाषार्थ - जैसे तुष के वपन ( बोना ) करने से चावल उत्पन्न नहीं होता अतः तुष का बोना व्यर्थ है इसी प्रकार शुद्ध भावना अर्थात निर्मल भावों के बिना उत्कृष्ट कियाकाण्ड करना भी निष्फ है इसलिए प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि निरन्तर निर्मल भावना रखे, न जाने कब परभत्र सम्बन्धी आयु का बन्ध हो जाय । आयु बन्ध के योग्य आठ अपकर्ष काल माने गये हैं ( जिसका विशेष वर्णन गोम्मट्टसार जीव काण्ड, राजवार्तिक, आदि ग्रन्थोंसे जानना ) उन आठ अपकर्ष कालों के समय जिस जीव के जैसे निर्मल, या मलिन परिणाम होते हैं तदनुसार हो सुगति कुगति सम्बन्धी भायु का बन्ध जीवों के हो जाता है जिसका हटाना असम्भव है। हां, परभव सम्बन्धी आयु की स्थिति का अपकर्ष, उत्कर्ष तो हो सकता