Book Title: Suktimuktavali
Author(s): Somprabhacharya, Ajitsagarsuri
Publisher: Shanti Vir Digambar Jain Sansthan

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Page 37
________________ सूक्तिमुक्तावली व्याख्याती पंडितः यज्जैनेन्द्र मतं श्रीजिनशासनं जिनोक्तवचनं अचंति पूजयति । पुः: २८सि विनात पुन मिति चिन्तयति । पुन: अधीते पठति तत् स धर्म जागरयति धमस्य जागरणं दीपनं करोति । पुनः अघं पापं विषटयति दूरी करोति । पुनः उत्पथं उन्मार्ग अनाचारं उत्यापति निवारयति । पुनर्मत्सरं गुणिषु द्वेषभावं भिन्ते भेदयति । पुनः कुनयं कुत्सितनयं अन्यायं पुच्छित्ति उन्मूलयति पुन: मिथ्यामति मध्नाति कूटधुद्धिं विलोक्य दूरीकरोति । पुनर्वैराग्यं तनोति विस्तारयति । पुनः कृपा दयों पुष्यति पोषयति । पुनस्सृष्णा स्पृहां लोमं मुष्णाति निराकरोति अर्थात येन जिनमतमाराधितं नेन एतानि वस्तूनि निकतानि इत्यर्थः । भो भव्यप्राणिन् । इति नास्त्रा मनसि विवेकमानीय श्रीजिनमत्तप्रशीतसिद्धान्तं च सम्यगाराधनीयं । आराधयतां च सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादादुम्वरोत्तरमांग. लिक्यमाला विस्तरन्तु ॥ २० ॥ अर्थ-जो जैन मत उत्तम क्षमा आदि रूप धर्म को प्रकाशमान करता है. पाप को हटाता है, उत्पथअर्थान मिथ्यामार्ग का खण्डन करता है, मत्सरता ( ईर्ष्या ) का भेदन करता है, नाश करता है। एकान्तवाद का खंडन करता है मिथ्याबुद्धि को दूर करता है, वैराग्य को बढ़ाता है, दया को पुष्ट करता है और तृष्णा का शोषण करता है ऐसे हितकर जिनमत [ जिनागम ] की सुकृतात्मा पुरुष पूजा करता है. प्रचार करता है, आराधना करता है, और पढ़ता पढ़ाता है ॥ २० ॥ वह व्यक्ति उभयलोक में मुखी होता

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