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सूक्तिमुक्तावली बचितो योग्योऽस्ति । कथंभूतः रोष: सदोषः अनेकदोपः सहिसः । सः कः यो रोषः संतापं चिसोद्वेगं तनुते विस्तारयति । पुन यो रोषो विनयं विनयगुणं भिनत्ति विदारयति विनाशयति । पुनर्यो रोषः सौहाद्र मित्रभाव उत्सादयति विनाशयति । पुनर्यः उद्वेग उच्चाटनं जनयति । पनयः अवयवचनं असत्यवचनं सूते उत्पादयति । पुनयः कलि कलई विधसे करोति । पुनर्यारोपः कौति यशः कीर्ति कृन्तति छिनत्ति । पुनर्योदुर्मसिं दुष्टबुद्धि वितरति-दसे । पुनयः पुण्योदयं धर्मस्य उदयं व्याहनि विनाशयति । पुनर्यः कुगति नरकतिथ ग्गति दत्ते ददाति । स रोषः सतां हातुमुचितः ॥ ४ ॥
(अर्थ--जो क्रोध मन्ताप को बढ़ाता है विनय को नष्ट करता है, मित्रता को उखाई देता है, अर्थात् जिससे भिन्नता नष्ट हो जाती है, उद्वेग को उत्पन्न करता है, निन्द्य वचन को उत्पन्न करता है, कलह करता है, कीर्ति को काट डालता है अर्थात नष्ट कर देता है, कुबुद्धि, पैदा करता है, पुण्य के उदय को नष्ट कर देना है, कुगति को देता है अर्थात् मर कर प्राणी कुगति में जाता है ऐसा अनेक दोषों को उत्पन्न करने वाला वह कोध सज्जन पुषों द्वारा त्याग करने योग्य है ॥४७॥
शार्दूलविक्रीडितछन्दः यो धर्मं दहति द्रुमं दव इवोन्मथ्नाति नीति लता । दंतीवेन्दुकला विधुतुद इव क्लिश्नाति कीर्ति नृणां ।। स्वार्थं वायुरिवाम्बुदं विघटयत्युल्लासयत्यापदं । तृष्णां धर्म इयोचितः कृतकृपालोपः स कोपः कथं ॥४८॥