Book Title: Suktimuktavali
Author(s): Somprabhacharya, Ajitsagarsuri
Publisher: Shanti Vir Digambar Jain Sansthan

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Page 89
________________ सूक्तिमुक्तावली अर्थ - सज्जन पुरुषों के धन रहिसपना ( निर्धनता ) तो है परन्तु दुर्जनता से कमाया हुआ अधिक धन प्राप्त करना उत्तम नहीं है। जैसे कि शरीर में सुख देने वाली स्वाभाविक कुरूपता तो अच्छी प्रतीत होती है परन्तु जिसका विपाक [ फल ] बुरा है ऐसी सूजन के कारण होने वाली शरीर में स्थूलता ( मोटापन ) उत्तम सुखप्रद नहीं होती । २२ भावार्थ - सज्जनता पूर्वक जीवन बिताते हुये गरीब रहना उत्तम है परन्तु दुर्जनता [ दुष्टता ] से अन्याय पूर्वक धन कमाते हुये धनी रहना उत्तम नहीं है । क्यों कि अन्याय का धन कभी स्थिर नहीं रहता, नष्ट हो जाता है तथा अन्यायी जीव के परिणामों में संक्लेशता सदा विद्यमान रहती है जिसके फलस्वरूप नरकादि गतियों के दुःख भोगने पढते हैं ॥ ६३ ॥ सौजन्यभाजां गुग्णानाइ - शार्दूलविक्रीडित छन्दः ि न ब्रूते परदूषणं परगुणं वक्स्यन्यमप्यन्वहं । संतोषं बहते परर्द्धिषु पराबाधासु धरो शुचम् ॥ स्वश्लाघां न करोति नोञ्झति नयं नौचित्यमुल्लंघयत्युक्तो ऽप्यप्रियमक्षमां न रचयत्येतच्चरित्रं सतां ।। ६४ ।। व्याख्या— सतां साधूनां सज्जनानां एतच्चरित्रं चेष्टितं अस्ति । एतदिति किं सज्जनः परदूषणं परदोषं न ते पुनरल्पमपि तुच्छमपि परगुणं अन्यगुणं अन्वहं निरन्तरं वक्ति कथयति ।

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