Book Title: Suktimuktavali
Author(s): Somprabhacharya, Ajitsagarsuri
Publisher: Shanti Vir Digambar Jain Sansthan

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Page 112
________________ सूक्तिमुक्तावली दानगुणमाह शार्दूलविक्रीडित छन्दः लक्ष्मीः कामयते मतिमं गयते कीर्तिस्तमालोकते | प्रीतिश्चुम्बति सेयते सुभगता नीरोगतालिङ्गति ।। श्रेयः संहतिरभ्युपैति वृणते स्वर्गोपभोगास्थिति | मुक्ति वञ्छिति या प्रयच्छति पुमान्पुण्यार्थमथ निजं ||७९||) व्याख्या-या पुमान् पुण्याधी निजं अर्थ स्वकीयं धनं प्रयच्छति ददाति तं पुरुष लक्ष्मीः कमला कामयते वांछति । पुनर्मतिथुद्धिस्तं मृगयते अन्वेषयति । पुनः कीर्तिस्तं आलोकते पश्यति । पुनः प्रीतिरानंदस्तं धुम्बति श्लिष्यति । पुनः सुभगता सौभाग्य सेयते भजति । पुन नीरोगता आरोग्यं तं आलिंगति । पुनः श्रेयः संहतिः कल्याणपरम्परा तं अभ्युपैति सम्मुखमायाति । पुनः वर्गोपभोगास्थिति देवस्थभोगपद्धतिस्तं वृणुते वरयति । पुनर्मुतिर्मोक्षस्त वाञ्छति यः पुण्या निजं श्रयं प्रयच्छति || EH अर्थ-जो पुरुष अपना धन दानावि पुण्य कार्यों के लिये दे देवा है लक्ष्मी स्वयं ही उससे मिलने की इच्छा करती है, अर्थात् दान के प्रताप से उसके घर स्वयं लक्ष्मी आजाती है, बुद्धि उसे ढूढती है, कीर्ति देखती , प्रीति उसे स्पर्श करती है, सुभगता [ सौभाग्यपना ] उसकी सेवा करती है, भारोम्यता आलिङ्गन करती है, कल्याण समूह प्राप्त होता है। स्वर्गों के भोग उपभोग की सामग्री ( कल्पवृक्षों द्वारा प्राप्त सुन्दर वस, पुष्प, वाद्यादि अनेक

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