Book Title: Suktimuktavali
Author(s): Somprabhacharya, Ajitsagarsuri
Publisher: Shanti Vir Digambar Jain Sansthan

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Page 114
________________ सूक्तिमुक्तावली १७ एिठत रहती है, बुद्धि उस करती है, पति की सियां उससे परिचय रखती हैं, स्वर्ग की लक्ष्मी उसके हाथ में बाजाती है, और तो क्या मुक्ति-लक्ष्मी इसकी अभिलाषा करती है। भावार्थ-जो पुण्यात्मा पुरुष धार्मिक नीति से कमाये हुये धन को धार्मिक कार्यों में खर्च करते हैं अर्थात् जिन प्रतिमा, जिन मन्दिर बनवाने में या उनका जीर्णोद्धार कराने में शास्त्रोंको लिखने लिखाने व वितरण करने में तथा मुनि आर्यिका श्रावक भाषिका के थाहार दान में, औषधिदान में उनकी परिचयों करने कराने में + अपना रुपया लगाते हैं उन्हीं का धन पाना सफल है वे ही मनुष्यों में शिरोमणि हैं, उन्हीं का मनुष्य जन्म पाना धन्यवाद के योग्य है, उनसे सभी जीव प्रेम करते हैं, संसार में उनकी चारों ओर कीर्ति फैलती है, लक्ष्मी उनके चरणों में लोटती है उनकी विशिष्ट बुद्धि या प्रतिभा होती है, चक्रवर्ति की विभुति भी उन्हें प्राप्त होती है, स्वर्ग की लक्ष्मी तथा मुकि लक्ष्मी तक उन्हें प्राप्त होती है इसलिये पात्रों को दान देना, धनकी सेवा भक्ति करना औषधि देना, उनके दुख संकट उपसर्ग को दूर करना, उनकी शान वृद्धि के हेतु शालों को वितरण करना नावकोका कर्तव्य है। अथ तप उपदेशद्वारमाह शार्दूलविक्रीडितछन्दः यत्यूार्जितकर्मशैलकुलिशं यत्कामदावानलज्वालाजालजलं यदुप्रकरणग्रामाहिमन्वाक्षरम् ।

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