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सूक्तिमुक्तावली
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व्याख्या - यः पुमान् पात्रे सुपात्रे दानं वितरति प्रयच्छति तं पुरुषं दारिद्र्य न ईश्वते न पश्यति । पुनस्तं दौर्भाग्यं दुर्भगत्वं न भजते न सेवते । पुनः अकीर्तिर यशस्तं नालम्बते नाश्रयति । पुनः तं पराभवः परिभवनं नाभिलषतेन वदिति । पुनर्व्याधिरामयं तं नाकति न शोषयति । पुनदैन्यं नामाद्रियते साधयति पुनर्वरो भयं तं न दुनोति न पीडयति । पुनः आपदो व्यसनानि कष्टानि तं न क्लिश्नंचि न पीडयति । यः पात्रे दानं ददाति । किंभूतं दानं अनर्थानां उपद्रवानां वलनं छेदकं । पुनः किंभूतं भियां संपदां निदानं कारणं ॥ ७८ ॥
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अर्थ - जो मनुष्य सत्पात्र के लिये लक्ष्मी बढ़ने का एक मात्र कारण तथा अनर्थों का दूर करने वाला दान देता है उसको दरिद्रता कभी नहीं देखती अर्थात वह दरिद्री कभी नहीं होता. दुर्भाग्य उसकी कभी सेवा नहीं करता, अपकीर्ति उसकी संसार में नहीं होती, तिरस्कार उसका नहीं होता, व्याधियां (रोग) उसको कभी नहीं सताती, दीनता उसका आश्रय नहीं करती, भय क्षोभ पैदा नहीं होता, आपत्तियां उसको कभी नहीं सताती वह सदा स्वस्थ रहता है ।
भावार्थ - जो पात्रों के लिये श्रद्धापूर्वक अपना कर्तव्य सम कर दान देते हैं उसके सभी विघ्न, उपद्रव शान्त हो जाते हैं । गार्हस्थ्य धर्म की शोभा दान से ही है। "गृही दानेन शोमते " ऐसा आचार्यों का वाक्य है। दान बिना घर शून्य माना गया है।