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सूक्तिमुक्तावली को चूर्ण करने के लिये पत्र समान है, कुबुद्धि रूपी अग्नि को प्रज्व,लित करने के लिये लकड़ी के समान है, अन्याय रूपी लता के लिये जड़ समान है ऐसी यह दुजन संगति कल्याण के इच्छुक [ मुमुनु ] जनों को क्या कभी हितकर हो सकती है ! अर्थात् कदापि
नहीं ।)
भावार्थ-जैसे शीतकाल में हिमपात के कारण कमल वन नष्ट हो जाता है या तीव्रपवन से भेषसमूह, इस्ती द्वारा उपवन, पापात द्वारा पर्वत आदि नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार निगुणी जनों
की संगति से मनुष्यों की प्रतिष्ठा, कीर्ति, न्यायबुद्धि, संयम '. तप आदि नष्ट हो जाते हैं अतः दुर्जनों का समागम हितकर नहीं है। अथेन्द्रियजयोपदेश माह
शार्दूलविक्रीडित छन्दः आत्मानं कुपथेन निर्गमयितुं यः शूकलाश्यायते । हत्याकृत्यविवेकजीवितहतो यः कृष्णसपोयते ।। यः पुण्यद्रुमखण्डखंडन विधौ स्फूर्जत्कुठारायते । तं लुप्तप्रतमुद्रमिन्द्रियगणं जित्या शुभंयु भव ।।६९||
व्याख्या हे साधो तं इन्द्रियगणं पञ्चेन्द्रियसमूहं मिस्त्रा विनिर्जित्य शुभयुः शुभसंयुक्तो भय । तं के यः इन्द्रियगणः स्पर्शन रसन प्राण चक्षुः श्रोत्रसमूहः आत्मानं स्वं कुपथेन कुमार्गेण निर्गमयितु नेतुं सूकलाश्वायते दुर्विनीत अश्व वाचरति सस्य कुमार्गगाम