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सूक्तिमुक्तावली धर्मध्वंसे घुरीणं मुख्यंत । पुनः अभ्रमरसस्य सत्यज्ञानस्य आवारीण भावरणाय समर्थ आच्छादक मित्यर्थ पुनः कथंभूतं आपदा । कष्टाना प्रथायां विस्तारणे अलकमीगण: कमक्षमतं । पुनः कि विशिष्ट शर्मण अकल्याणां दुःस्वाना निर्मिती निर्माणकरणे कलापारोणः चतुरस्तं । पुन: किं विशिष्ट एकांततो निश्चयेन सर्वानीनः सन्निभक्षकस्त । पुनः किं विशिष्ट न आत्मनेहितोऽनात्मनीनस्त आत्मनोऽहितं । पुनः किं अनये अन्यायेऽत्यंतीमोऽत्यंतगामी तं । पुनः किं इष्टे इष्टवस्तूनि यथाकामस्वेच्छया वर्तते इतियथा कामीनस्तं । पुनः किं विशिष्ट कुमते कुत्सितमतेऽध्वनीनः पांथस्तं । ईशं इन्द्रियसमूह मजयन् सन अक्षेमभाक भवति ।। ७२ ॥
कुरंगमातंगपतंगभृतमीनाह तापंचभिरेव पंच । एक: प्रमादी स कथं न पध्यते यः सेवते पंचभिरेव पंच ॥
इति इन्द्रियप्रकमः अर्थ-धर्मको नाश करने में प्रमुख, सत्यज्ञानके आच्छा. एक भापचियों के बढ़ाने में समर्धा, दुःखों को उत्पन्न करने में निपुण, सर्वथा एकांत रूप से सर्वको भक्षक, आत्मा का अकल्याण करने वाले, खोटी नीति में प्रवृत्ति कराने वाले, अपने इष्ट विषयों में स्वेच्छाचारी, कुमार्ग में चलने वाले ऐसे इन्द्रिय समूह को जो व्यक्ति विजय नहीं करता है वह कदापि अपना कल्याण नहीं कर सकता।
भाषा-इन्द्रियों को षश किए बिना बारमा का कल्याण न कभी हुआ और न होगा। बिवेन्द्रिय पुरुष ही ध्यान केबलसे