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सूक्तिमुक्तावली
गोत्र | पुनर्लक्ष्मी नृणां पुंसां चैतन्यं ज्ञानं अंशसा वेगेन वजासयति गमयति कस्मात् विषसन्निधेर्विषसामीप्यादिव । लक्ष्म्याः विषस्य च समुद्रस्थानत्वाम् तस्मात्कारणात् गुणिभि स्थाननियोजनेन धर्मस्थानव्यय करणेनास्याः लक्ष्म्याः फलं माझं सफला कर्तव्या इत्यर्थः ॥ ७६ ॥
इति लक्ष्मी स्वभाष प्रक्रमः अर्थ- उगी समुद्र की गति ही मानों नीचे की ओर गमन करती है. कमलिनी के संसर्ग से ही मानों पैरों में कांटे चुभने की पीड़ा से आकुलित होती हुई मानों कहीं पर स्थिर पैर नहीं रखती अर्थात् बहुत काल तक एक स्थान पर लक्ष्मी नहीं रहती तथा लक्ष्मी को विष की निकटता रही है. इसी हेतु मानों यह लक्ष्मी मनुष्यों की चैतन्य शक्ति को शीघ्र ही मूर्तित कर देती है अतः गुणवान् पुरुषों को धर्म स्थानों में खर्च कर देने से ही इस लक्ष्मी के प्राप्त करने की सफलता ग्रहण करनी चाहिये ।
भावार्थ - साहित्यिक वर्गों है कि लक्ष्मी समुद्र से उत्पन्न हुई है और कमल निवासिनी है, समुद्र मन्थन से विष भी उत्पन्न हुआ था अतः लक्ष्मी विष की बहिन है । समुद्र -जन से उत्पन्न होने के कारण लक्ष्मी जल के समान नीचे की ओर हो जाती है तथा कमल निवासिनी होने के कारण पैरों में कांटे चुभ जाने के भवसे कहीं पर स्थिर नहीं रहती । चंचला लक्ष्मीका यह स्वभाव दिखाया है, और विष की बहिन होने के कारण लक्ष्मी मनुष्यों को अचेत कर देती है अर्थात धन के महावेश में आकर पुरुष अचेत हो जाता है जिसके कारण पूज्य पुरुषों का भी अपमान कर बैठता है, दिवा
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