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सूक्तिमुक्तावली
और धनाढ्यों के धन की लालसा अधिक होती है अतः धन के होते हुये भी वे दुखी रहते हैं । इस प्रकार निर्धन और धनी दोनों दुखी हैं सिर्फ मुनि ही सुखी हैं। क्योंकि उन्होंने सर्व प्रकार के परिषद की वांछा छोड़कर परम संतोष धारण कर लिया है ।
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धनमोहोत्पादकत्वमाङ्ग -. शार्दूलविक्रीडित छन्दः
नीचस्यापि चिरं चटूनि रचयन्त्यायान्ति नीचैति । शत्रोरप्यगुणात्मनोऽपि विदधत्युच्चैर्गुणोत्कीर्तनं ॥ निर्वेदं न विदंति किंचिदकृतज्ञस्यापि सेवाक्रमे । कष्टं किंन मनस्विनोऽपि मनुजाः कुर्वन्ति विचार्थिनः ॥७५ |
व्याख्या - मनस्विनो मानतो दक्षा अपि मनुष्या वित्ताचिंनो द्रव्यार्थिनः संत किं कष्ट न कुहीति । अपि तु सर्व कष्ट कु बंति ! यथा नीचस्यापि नरस्यात्रे चिरं चिरकालं यावत् चटूनि चाटुवचनानि प्रियवचनानि रचयंति जल्पन्ति । पुनर्नीचैः नरेः समं नति आयान्ति प्रणामं कुसि । पुनः शत्रोरपि अगुणात्मनोपि निर्गुणस्यापि उच्चैरतिशयेन गुणोत्कीर्तनं गुणवर्णनं विदधति कुर्णन्ति । पुनः अकृतज्ञस्यापि सेवामे खेदं सेवाकरणे किचित् स्तोकमपि निवेषं खेदं वैराग्यं न विदति न जानन्ति वित्तवाकाः संतः ॥ ७५ ॥
अर्थ - धन प्राप्त करने के अभिलाषी होकर मनस्वी लोग भी नीच पुरुष की बहुत काळ पर्यंत चाटुकारिता ( खुशामद, वचन द्वारा हाँ हुजूरी ) करते हैं, शत्र के आगे भी नतमस्तक रहते हैं,
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