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सूक्तिमुक्तावली पुनः भूमिभुजो राजानः छलं आकलय्य मिषं दत्वा गृहन्ति हुतभुग पहिः क्षणाद बेगेन भरमीकरोति । व्यालयित्वा रक्षा करोति । पुनरंभा पानीयं प्लावयति वायति । पुनर्यदनं क्षिती भूमौ विनिहितं स्थापितं सत्तू यक्षा व्यंतरा हठात् बढारकारेण इरते अपहरन्ति । पुनदुर्वृत्ताः दुराचाररतनयः सः नेमकिन ननि गन्ति । एवं बबधीनं धनं धिगस्तु ॥ ७४ ।।।
अर्थ-कैसा है धन, भाई बन्धु कुटुम्बी जन जिसके लेने के लिए रातदिन वांछा करते हैं, चोर जिसे चुरा लेते हैं, राजा लोग कूट कपट रच कर जिसे लेते हैं, अग्नि क्षण भर में जला देती है पानी जिसे बहा ले जाता है, पृथ्वीमें गड़े हुए धन को भूत प्रेतादि जबरदस्ती हर लेते हैं, दुराचारी पुत्र जिसे नष्ट कर देते हैं ऐसे अनेक विघ्न बाधाओं के माधीन रहने वाले अर्थात् जिस धन को सभी संसारी जीव चाहते हैं पर सबको मिलता नहीं, ऐसे उस धन को धिक्कार हो।
भावार्थ-धन प्राणों से भी प्यारा होता है जिसका धन चोरी चला जाता है यह पागल हो जाता है, कभी कभी तो मनुष्य धन के नष्ट हो जाने पर अपने प्राणों का भी विसर्जन कर बैठता है ऐसे धन को धिक्कार है। कहा भी है :-( बास्मानुशासन ६५ श्लोक )
अर्थिनो धनमप्राप्य, धनिनोऽप्यवित्तितः . कष्ट सर्वेऽपि सीवन्ति, परमेको मुनिः सुखी ।।
वर्थ-धन के चाहने वाले धन को न पाकर दुस्खी होते हैं