Book Title: Suktimuktavali
Author(s): Somprabhacharya, Ajitsagarsuri
Publisher: Shanti Vir Digambar Jain Sansthan

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Page 94
________________ सूक्तिमुक्तावली पुनः यदि कौति यश प्राप्तु समोहसे वांछसि । पुण्यं समामेवितं कर्न समीइसे । पुनर्यदि विपदं आपदं अपाकतुं दूरीक समीहसे वाच्छसि । पुनरसाधुता असौजन्यं विधुवितुं स्फेटयितुं समीहसे वांछसि । पुनर्यदि धर्म पुण्यं समासेवितुं कर्तुं समीहसे बांच्छसि । पुनर्यदि पापविपाक अशुभकर्मफलं रोद्ध समीहसे । पुनर्यदि स्वर्गापाश्रियं देवकोकमोक्षलक्ष्मी आकलयितु अनुभवितु समीहसे । तदा गुणवता संगं कुरु ॥ ६ ॥ अर्थ हे चित्त ! यदि तू बुद्धिका भण्डार प्राप्त करने के लिये, आपत्तियों को हटाने के लिए, सन्मार्ग में गमन करने के लिये, कीर्ति को प्राप्त करने के लिये, धर्म को शांति पूर्वक सेवन करने के लिये, पापों के फल दुखों को हटाने के लिये, स्वर्ग तथा मोक्षफ्री लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिये इच्छा करता है, तो सज्जन गुणवान पुरुषों की संगति को अवश्य ही स्वीकार कर। भावार्थ-यदि मनुष्य इह लोक परलोक सम्बन्धी सुखों की अभिलाषा रखता है तो उसे गुणी जनों की संगति करनी चाहिये । क्योंकि सत्संगति से सन्मार्ग में बाधा उपस्थित करने वाले दोषों का निराकरण होजाता है। निर्गुणसंगमदोषमाह ( हरिणी छन्दः हिमति महिमाम्भोजे चंडानिलत्युदयाम्बुदे । द्विरदति दयारामे समक्षमाभृति वजति ||

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