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सूचिमुक्तावली
बाढं धनेन्धनसमागमदीप्यमाने । लोमानले शलभतां लभते गुणौघः ||९||
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व्याख्या - लोभ एवानलोऽग्निः तस्मिन् लोभानले गुणौधो ज्ञानादिगुणानां भधः समूहः शलभतां पतंगां लभते पतनछज्जलति । कथंभूते लोभानले निःशेषं समस्तं यद् धर्म एव वनं तस्य दाहेन विभमाणः विस्तारं प्राप्नुत्रत् तस्मिन् । पुनः कथंभूते दुःखानां ओघः समूह एव भस्म रक्षा यत्र सः तस्मिन् । पुनः कथंभूते विसर्पत् प्रसरदपकीर्ति एव घूमो यस्मात् स तस्मिन् । पुनः कथंभूते बाढं अतिशयेन धनान्येव द्रव्याण्यधनानि एधांसि तेषां समागमेन आगमेन दीप्यमानोऽत्यन्तं प्रज्वलत बृद्धिप्राप्नुषत् तस्मिन् । सगुणाः पतंगवत् भवंति संतोषेण लोभो निवार्यः स्यात् ॥ ५६ ॥
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अर्थ- समस्त धर्म रूपी वन को जलाने वाली अग्नि की वृद्धि हो रही है जिसमें दुःखों का समूह हो भस्म है जिसमें, अपकीर्ति रूपी धुंआ फैल रहा है जिसमें, इच्छित धनरूपी ईन्धन के मिलने से जाज्वल्यता हो रही है जिसमें ऐसी लोभरूपी अग्नि में गुणों का समूह पतंगों के समान जलकर भस्म हो जाता है अर्थात् लोभ के कारण सब गुण नष्ट हो जाते हैं। सारांश - यह है कि कोई
मुनि या आवक धर्म पालन करे और अनर्थकारी लोभ के फंदे में पड़ जाय तो गुण नष्ट हो जाने से संसार में अपकीर्ति हो जाती है अतः लोभ का त्याग करना ही श्रेयस्कर है ॥ ५६ ॥