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सूक्तिमुक्तावली क्रीडासा लीलागृहं । पुनर्विवेकः एव पुण्यापुण्यविचार एवं शशी चन्द्रस्तस्य स्वर्भानुः राहुः । पुनः आपन्नदीसिंघुः आपदः कनान्येक नास्तासां सिंधुः समुदरतासां स्थानरूपत्यात् । पुन: किं कीर्तिरेव' लता वल्ली तस्याः कलापः समूहस्तस्य विनाशे कलमो हरित शाव ईशी कोमी जीयतः ।।
अर्थ कैसा है लोभ-मोहरूप विषवृक्ष का मूल है. पुण्यरूपी समुद्र को शोषण करने के लिये अगस्त्य ऋषि समान है [ऐसी एक किंवदन्ती है कि अंगुष्ठ प्रमाण अगस्त्य ऋषि ने सारा सागर का जल पी लिया था ] अर्थात अति लोभ के कारण पाप बन्ध होने से पुण्य का क्षय हो जाता है पुण्य का अनुभाग सर्वथा । हीन हो जाता है, कोच रूपी अग्नि को बढ़ाने के लिये भरएिण्यकी लकड़ी है, प्रताप रूपी सूर्य को ढकने के लिये भेषों के समान है, कलह के क्रोश करने का स्थान है. विक रूपी चन्द्रमा के लिये राह समान है, भनेक भापति रूपी नदियों का समुद्र है, तथा कीर्ति रूपी लता समूह को उखाड़ने के लिए हाथी के बच्चे के समान है अर्थात् मनुष्य की की िपर कालिमा लग जाती है ऐसा अनेक अनों का मूलभूत एक लोभ ही है अतः उसका तिरस्कार करना चाहिए . अर्थात उस लोम का त्याग कर देना चाहिए ॥ ५ ॥ पुनराह
वसन्ततिलका छन्ः निःशेषधर्मवनदाहविजम्ममाणे । दुःखौघभस्मनि विसर्प दकीर्तिधूमे ।।