________________
शिकायत विनय एष नयवीथी न्याय श्रेणिस्ता विवलयन् विध्वंसयन् अन्योपि मदांधो हस्ती एतानि वस्तूनि करोति ॥ ५० ॥
अर्थ-मदान्ध पुरुष की चेष्टा का वर्णन करते हुये आचार्य कहते हैं कि-मान कषाय कैसी है--समता भाव रूपी बन्धन के खम्भे को उखाड़ता हुआ, निर्मल बुद्धिरूपी सांकल को तोड़ता हुआ, दुर्वचन रूपी धूल के समूह को बखेरता हुआ, आगमरूपी अंकुश को नहीं गिनता हुआ पृथ्वीतल में इच्छानुसार भ्रमण करता हुआ, विनय रूपी बाग की गली को दलमलीन करता ( कुचलता हुआ अहंकार से अन्धा पुरुष मदोन्मत्त हाथी के समान क्या क्या अनर्थ नहीं करता १ किन्तु सभी प्रकार के अनर्थ कर डालता है अतः मान कषाय को त्याग कर मार्दव धर्म धारण करना योग्य है |॥ ५० ॥ ) पुनराह
शार्दूलविक्रीडितछन्दः औचित्याचरणं विलुपति पयोवाह नभस्वानिक । प्रध्वंसं विनयं नयत्यहिरिव प्राणस्पृशा जीवितम् ।। कीति करविणी मतङ्गज इव प्रोन्मूलयत्यंजसा । मानो नीच हवोपकारनिकरं हन्ति त्रिवर्ग नृणां ।।५।।
व्याख्या-मानोऽहंकारो नृणां पुंसां त्रिवर्ग धर्मार्थकामरूप हंति नाशयति कः कमिव नीचोमनुष्यः उपकारनिकरमिव यथा नीच उपकारसमूह हति तथा । पुनःमान औचित्याचरणं योग्याचार विलम्पति स्फेटयति कः कमिव नभस्थान वायुः पयोषाहमिव । पुन