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सूक्तिमुक्तावली
परलोक में जीवोंको सुख शांति प्राप्त नहीं हो सकती ॥ ५४ ।। पुनर्मायादोषमा---
वंशस्थछन्दः मायामविश्वासविलासमन्दिरं । दुराशयो यः कुरुते धनाशया । सोऽनर्थसाथ न पतन्तीक्षते ।
यथा विडालो लगुढं पयः पिचन् ।।५।।
व्याख्या-यो दुराशयो दुष्टचित्तो जनो धनाशया द्रव्यस्य वांछया लोभेन माया कपट कुरुते विदधाति स जन आत्मनोऽनर्भसार्थ कष्टसमूहं पतन्तं आगछन्तं नेक्षने नालोकते । कथं यथा विद्यालो मार्जारः पयो दुग्धं पिबन् सन् लकुटं दण्डप्रहार नेक्षते मालोकते। कथंभूतां माया अविश्वासस्य अप्रतीतेः विलासमन्दिरं क्रीडागृहं मंदिरशब्दस्य अजहल्लिगत्वात् ।। ५५ ।।
अर्थ-जो दुष्ट अभिप्राय [ परिणाम ] वाला पुरुष धन की इच्छा से अविश्वास के क्रीडा-स्थान रूपी मायाचारी को करता है वह अपने ऊपर आई विपत्तियों को नहीं देखता है। जिस प्रकार दूध को पीता हुआ बिलाव ऊपर से अपने ऊपर पड़ती हुई लफदी को नहीं देखता है । खेद है कि मायाचारी दूसरों का अनिष्ट सोचता है परन्तु धस मायाचारी से स्वयं अपना अहित-अनिष्ट हो जाता है इससे वह जरा भी नहीं डरता है ।।५।।