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सूक्तिमुक्तावली पुनराह---
उपेन्द्रवज्राछन्दः विधाय मायां विविधैरुपायैः । परस्य ये बञ्चनमाचरन्ति ॥ ते चयन्ति त्रिदिवापवर्ग
सुखान्महामोहसखाः स्वमेव ।।५४॥
व्याख्या-ये जनाः विविधर्नानाप्रकाररुपायः मायां कपट विधाय कृखा परस्य अन्यजनस्य धर्म आचरान्त कुन्ति ते जनाः महामोहसखाः मदज्ञानयुक्ताः सन्तः विदिवापवर्गसुखान देवलोकमोक्षसुखान् स्वमेवात्मानमेव बनयन्ति विप्रतारयन्ति त्याजथन्ति || ५४ ॥
अर्थ-जो लोग अनेक प्रकार से मायाचारी ( जालसाजी ) करके दूसरे लोगों को ठगते हैं, अन्यथा प्रतिपादन करके मिथ्यामार्ग में लगाते हैं वे महामोह के मित्र ( मोह कर्म के पश होकर ) स्वर्ग और मोक्ष के सुगम से अपने आपको वंचित करते हैं।
भावार्थ-निष्कपट परिणाम सरीरली अन्य सस्यता संसार में प्रशंसा के योग्य नहीं है और मायाचारी जैसी अन्य असत्यता निन्दा के योग्य नहीं है। कपटी पुरुष के व्रतों का पालन करना, कठिन तपश्चर्या आदि करना सर्व निष्फळ है। जो मायावी दूसरों को अपने वाग्जाल में फंसा कर हर्ष मानते हैं वे स्वयं भायाचारी परिणामों से निकृष्ट बन्द कर अपने प्रात्माको नर्क गर्व में पतन कराते हैं। इसलिए मायाचार रूप परिणामों के त्यागे बिना इस लोक में,