Book Title: Suktimuktavali
Author(s): Somprabhacharya, Ajitsagarsuri
Publisher: Shanti Vir Digambar Jain Sansthan

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Page 59
________________ सूक्तिमुक्तावली एतानि भवति |॥ ३८ ॥ अर्थ-जो पवित्र शीलवत पालन करता है वह वासानी . से स्वर्ग मोक्ष की रचना करता है। उसे स्वर्ग मोक्ष पाना सरल है. वह पापरूपी कीचड़ को घोता है, पुण्य का संचय करता है, जगत में उसकी महिमा फैलती है, देवों के समूखको नमस्कार कराता है अर्थात इसे देव नमस्कार करते हैं घोर उपसर्ग को हनता है अर्थात उसके घोर उपसर्ग दूर हो जाते हैं ।। ३ ।। मालिनीछन्दः हरति कुलकलङ्क लुपते पापपंक । सुकृतमुपचिनोति श्लाध्यतामातनोति ।। नमयति सुरवर्ग हंति दुर्गोपसर्ग । रचयति शुचिशीलं स्वर्गमोक्षी सलीलम् ।।३९।। व्याख्या--पुनश्च शुचि निमशं शीलं ब्रह्मत्रतं कुलस्य कलंक मलिनतां हरति नाशयति । पुनः शीलं पापमेव पंक कदम लुपते छिनसि । पुनः शुचि निर्मलं शुद्ध शीलं सुकृतं पुण्यं उपचिनोति बर्द्ध यति । पुनः श्लाध्यतां प्रशस्यतां आतनोति विस्तारयति । पुनः शीलं सुरवर्ग नमयति देवसमूह नम्रीकरोति । पुनः शीलं दुर्गोपसर्ग गैद्रोपसगै उपद्र 'हति । पुनः शीलं कर्तृ सलीळ यथास्याराथा लीलयैव हेलामात्रेण स्वर्गमोक्षी रचयति ददातीत्यर्थः ॥ ३३ ॥ अर्थ-जो अखंड शीलवत धारण करते हैं, उनके व्यान सर्प जल अग्नि भादि कृत आपसियां नष्ट हो जाती है, ये कल्याणसे सुशोभित होते हैं, देव सन्मुख आकर नम्र होते हैं, उनकी कीर्ति

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