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सूक्तिमुक्तावली
सुकृतवन्दवाग्निर्मार्दवाम्भोदवायु । नयन नितुषारो ऽस्यर्थमर्थानुरागः || ४२ || व्याख्या - अस्य अर्थानुरागः परिग्रहो परिमूर्छा रागः ईदृशोस्ति । कथंभूतः कलह एव कलभो बालहस्ती तस्य विध्यो विध्याचल यथा विध्याचले कलभः कीद्धति तथा अत्य अर्थानुरागे द्रव्यरागे कलहो भवति । तथा कोथगृअश्मशानं क्रोध एव गृधः पक्षिविशेषस्तस्य श्मशानं प्रेतवनं यथा गृध्रः श्मशाने रमते तथा क्रोधः । पुनः व्यसनभुजगरन्ध्र व्यसनमेव कष्टमेव भुजगः सर्पस्तस्य बिलं । पुनद्वेषदरयुप्रदोष: द्वेष एव दस्युश्चौरस्तस्य प्रदोषः संध्यासमयः । प्रदोषे चौराणां बलं भवति तथा सुकृतवन्दवाग्निः सुकृत एव पुण्यमेव चनं तस्य दवाग्निः दावानलः । पुनर्भावांभोदवायुः मार्दवं मृदुत्वं कोमल तदेव अंभोदो मेघस्तत्र वायुः । गुननयनलिनतुषार:नयो न्याय एव नलिनं कमलं तत्र तुषारो हिमं । अत्यर्थं द्रव्यानुरागो लोभो ईदृशोस्ति । अतो न कर्तव्यः ॥ ४२ ॥
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अर्थ - पदार्थों में अतिशय अनुराग सत्पुरुषों द्वारा त्यागने योग्य है। क्योंकि अधिक अनुराग ही परिमछ है, अधिक ममता से निकृष्ट कर्मों का बन्ध होता है, उसी का वर्णन किया जाता है :कलह ( लड़ाई ) रूप जो हाथी का बच्चा उसके निवास के लिये विन्ध्याचल पर्वत के तुल्य है अर्थात् परिग्रह ही कलह का कारण है, इसी के कारण भाई भाई का शत्रु बन जाता है, क्रोध रूपी गृद्ध पक्षी के निवास का स्थान- श्मशान के समान है अर्थात् परिषद के कारण ही कोष उत्पन्न होता है। सात व्यसन रूपी सर्प के बिल के समान हैं, द्वेष रूप बोर को रात्रि के समान
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