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सूक्तिमुक्तावली कुगतिगमने मार्गः स्वर्गापवर्मपुरामलं । नियतमनुपादेयं स्तेयं नृणां हितकाक्षिणां ॥३६।।
व्याख्या–नियतं निश्चितं हितकांक्षिणां हितमिच्छतां नृणां पुरुषाणां स्तेयं चौथी अनुपादेयं अप्रायं भवति । अद अग्रहणीयं स्यात् । किंभूतं अदत्तं, परजनमनःपीडाकोहावनं परे च ते जनाश्च परजना स्तेपां मनांसि चित्तानि तेषां पीडा वाधा तस्याः कीडावनं रमणीयोशनं । पुनः वधभावनाभवन व निसायामापनि नया गृहं । पुनः अवनिव्यापिण्यापल्लता-घनमंडलं अपन्यां व्यापिनी प्रसरणशीला या व्यापत् आपद् सैव लता पल्ली तस्याः घनमंडल मेघपदले । पुनः कुगतिगमने मार्ग अच्छा । पुनः स्वर्गापवर्गपुरागला, स्वगापवर्गावेव देवलोकमोक्षी एव पुरं नगर तत्र अर्गला परिधः । ईदशं स्तेयं हितकांक्षिणां नृणां अग्राह्यं स्यात् । अत्र रोहणीकथा वाच्या ॥ ३६॥
इति स्वेय प्रक्रमः । अर्थ - चोरी कैसी है- दूसरे मनुष्यों के मनको पीड़ा देना रूपी क्रीडा का वन है अर्थात् अपने तथा दूसरे के लिये मन सन्ताप का कारण है, पर के मारने की भावना का घर है अर्थात् चोरी करने बाले के दूसरों को मारने की भावना बनी रहती है, पृथ्वी में व्याप्त आपत्ति रूपी लता के बढ़ाने को मेषों का समूह है अर्थात् चोरी से अनेक प्रकार की आपत्तियों का सामना करना पड़ता है. कुगतिके गमन का सीधा मार्ग है, स्वर्ग तथा मोक्ष रूपी नगर की उत्कृष्ट अर्गला है अर्थात् चोरी करनेवाला स्वर्ग नहीं जा सकता, इस प्रकार की चोरी हित के वांछक पुरुषों द्वारा अवश्य ही निश्चित